Friday 19 April 2013

राई की एक रात


राई की एक रात


माधव शुक्ल  मनोज  
बुन्देलखण्ड का लोक नृत्य 


माधव शुक्ल मनोज ने बुन्देलखण्ड की लोक संस्कृति को गहरे तक जाना और समझा। बुन्देलखण्ड के एकमात्र लोक अध्येता के रूप में उन्होंने बुन्देलखण्ड के 'राई नृत्य' पर शोध कार्य किया और ग्रामों से दूर और नाम से ही सामाजिकता के परे राई नृत्य और नर्तकियों को समाज में गौरवपूर्ण स्थान दिलाने का कार्य किया। आज बुन्देलखण्ड में राई एक कला का दर्जा ले चुकी है और बेड़नी एक कलाकार का। अब उसे सम्मान भी है और उसके हक का पारिश्रमिक भी। इसी परिप्रेक्ष्य में 'राई' को विदेश तक जाने का अवसर मिला और वाद्य नर्तक के रूप में कलाकारों को राज्य स्तरीय सम्मानों से भी नवाजा गया। आज राई देश का एक प्रसिद्ध, श्रृंगारपूर्ण, ओजपूर्ण श्रेष्ठ लोक नृत्य है। श्री 'मनोज' का लिखा ‘राई’ मोनोग्राफ तथा एक अन्य गीत पुस्तिका शासन द्वारा प्रकाशित किया गया है। राई को उस गावं के अंधेरे कोने से जहां नृत्य केवल मशालों के प्रकाश में ही होता था अब देश के बड़े कलामंचों तक गौरवपूर्ण प्रस्तुतियां देखने मिलती है इसका श्रेय केवल और केवल श्री माधव शुक्ल मनोज की महती चेष्ठा और सतत् उपक्रम को जाता है।

पूरी रात मशाल के प्रकाश में सुसज्जित लोक नर्तकी स्वांग, ख्याल और फागै गाती हुई ठुमक के साथ, पैरौं में धुंघरू बजाती सौ चुन्नटों वाला लहंगा फैलाती, हवा में चुनरी लहराती, नाचती है और वादक ढोल, मंजीर, मृदंग पर ताल देता है तब दर्शकों की भीड़ मुग्ध होकर वाह-वाह करने लगती है। ऐसे बुन्देलखण्ड के लोकप्रिय नृत्य को 'राई नृत्य' कहते हैं। बुन्देली साज बजाते हैं और नर्तकी के साथ भाव-विभोर होकर गाते, नाचते हैं। जहां भी यह नृत्य होता है। वहां अपने आप बिना बुलाये ग्रामवासी नर-नारी बच्चे एकत्रित हो जाते हैं। गांवों में आजकल लोक नर्तकी जिसे बेड़नी कहते हैं  ने ही इस नृत्य पर अपना आधिपत्य जमा लिया है। कुछ लोग इस नृत्य को अश्लील मानते हैं और सौबत में जाना उचित नही समझते किन्तु रसिक कला पारखी लोग अवकाश के समय में बेड़नी को नाचने के लिए आमंत्रित करते हैं और उसे मुजरा, पुरस्कार देकर उनकी नृत्य कला को सराहते हैं।

कहा जाता है कि राज गौंड शासकों के दरबारों में सुन्दर युवनियां इस नृत्य को नाच कर सरदारों और सभासदों का मनोरंजन किया करती थी। रानियां भी कभी-कभी अपनी अशांति, मन की बेचैनी दूर करने के लिए अपनी सहेलियों से राई नचवा कर उन्हें पुरस्कार देती थीं, कुछ लोगों का अनुमान है कि युद्ध लड़ते-लड़ते जब सैनिक थक जाते थे तब उनमें एक उल्लास, स्फूर्ति उत्साह भरने के लिए रास्ते में ही राई नृत्य का प्रदर्शन होता था। इस लिए इस नृत्य को ‘राही’ नृत्य भी कहा जाता है।

यह नृत्य किसी भी समय नाचा जा सकता है। पूरी रात मशालों के प्रकाश में नाचती हुई बेड़नी राई नृत्य की अनेक शैलियों का प्रदर्शन करती है। वह मथानी की भांति मंडल में विशेष रूप से नाचती है। कभी उसकी पद गति मंद होती है तो कभी तेज, वह कभी चक्र की तरह घूमती है तो कभी स्थिर होकर नाचती है।

जब मृदंग वादक के सामने पलट कर, उसके मृदग पर अपना धुंधटा से ढका शीश रख देती है और कमान की तरह लचक कर अपने लंहगे के दोनों छोरो को पकड़कर ठुमकती हुई धीरे-धीरे आगे बढ़ती है तो वह मोर की मुद्रा वाला सुन्दर दृश्य भारतीय गरिमा से दमकने लगता है। देश का राष्ट्रीय पक्षी मोर है। इस ओर भाव भंगिमा इंगित करती हुई बुन्देलखण्ड की लोक नर्तकी की यह नृत्य कला सचमुच प्रशंसनीय लगती है उसके अंग प्रत्यंगों की थिरकन, भाव भरी लचक बहुत ही आकर्षक होती है। जब नर्तकी नाचती हुई रसिकों के पास जाकर लोगों के हृदय तक झांकर उन्हें अपनी ओर आकर्षित करती हुई श्रृंगार रस के मधुर गीत इस प्रकार गाती है।

नैना बानों की चोट जी खों लगे ओई जानें
जियरा धरे ने धीर चोली के बंध टूट जांये रे
करियो ने दगा, हम तो तुमई तुम में बिगरे

बेड़नी के भी कुछ आदर्श और सिद्धान्त होते हैं जिसकी प्रशंसा अवश्य की जानी चाहिए जब कभी रसिक प्रेमी बेड़नी को चिढ़ाना चाहता है तब अपने बायें हाथ की गदेली पर नोट रखकर बार-बार दिखाते हैं तब बेड़नी को उस नोट का छूना तो दूर रहा वह अपनी नजर भी नहीं डालना चाहती। बायें हाथ का पैसा लेना वह अनुचित समझती है। वह तो मर्द की कमाई का पैसा दाहिने हाथ से ही लेना चाहती है। भले ही वह किसी का भी दस का पैसा क्यों न हो।

इस भाव विभोर नृत्य की मधुरिमा से प्रभावित होकर बुन्देली वाद्य-वादकों का मन भी अपनी सीमा को भूल जाता है और वह नर्तकी के साथ उसी नृत्य ताल में ही थिरकने लगता है। कभी टिमकी वादक, कभी मृदंग वादक प्रतिस्पर्धा (होड़) को लेकर इस 'राई लोक नृत्य' को और ही आकर्षक बना देते हैं।
राई की एक रात-माधव शुक्ल मनोज ,रामसहाय पांडे वादक दल 

इस तरह ‘ राई की एक पूरी रात’ नाचते-नाचते जब पूर्व दिशा में सुबह का तारा चमकने लगता है तब लोक नर्तकी की आखों में एक निंदियारी लज्जा से झुकी हुई अभिव्यक्ति सभी के साथ एक स्वर में गा उठती है-

मोरी नींदा लगन दे साई रे
भये भुनसारे टूटे तारे
नैनों में शरम आई रे।
मोरी नींदा लगन दे साई रे।

माधव शुक्ल मनोज

No comments: