Friday 5 April 2013

भोर के साथी 1956-समीछा

भोर के साथी 1956

माधव शुक्ल मनोज 

समीक्षक हनुमान वर्मा पत्रिका-वसुधा-जुलाई 1956 पेज न. 64

 


भोर के साथी ग्रामीण जीवन से संबंधित 21 कविताओं का संग्रह है जिसकी भूमिका डा. रामरतन भटनागर ने लिखी है। भूमिका में डा. भटनागर ने संक्षिप्त में हिन्दी साहित्य में ग्राम्य तत्व से संबंधित कुछ व्यक्तियों एवं रचनाओं का उल्लेख किया है और फिर उसी संदर्भ में उन्होंने ‘मनोज’ जी की रचनाओं का अभिनंदन किया है। जिन व्यक्तियों का डा. भटनागर ने उल्लेख किया है उनमें सुमित्रानंदन पंत, रमई काका, नागार्जुन और फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ हैं। इनके बीच में मनोज जी की कविता-संग्रह में का मूल्यांकन करना उचित ही है। क्योंकि इस संग्रह में कवि ने जिस भाषा और शैली का प्रयोग किया है, वह अवश्य ही उपरोक्त साहित्यकारों के ही प्रकार की है जिसमें यदि कहीं दोष दिखाई देता है तो वह है कवि की साधन-सम्पन्नता की हीनता। कवि ने गांवों के चित्रों को गांवों की भाषा में ही रंग से संवारा है। कहीं कवि ने उसमें शहरातीपन नहीं आने दिया। उसकी शब्दावली ग्रामीणों की बोल-चाल की भाषा है और स्वर-लहरी भी प्रेषणीय तथा लोक-प्रिय। गांवों के जीवन तत्व और उनके सामाजिक संस्कार कही-कहीं बड़े मधुर रूपक बांधते हैं।
भोर के साथी  1956- माधव शुक्ल मनोज  

‘ हंसे ज्वार के कुंज ’ और ‘ भादों रसिया शीर्षक कविताओं में कवि ने प्रकृति को मानवी संस्कारों में बांध दिया है। कहीं-कहीं पर गांवों के लोकप्रिय स्वर और विश्वास कविता में फूट पढ़ते हैं। जैसे ‘ नील कंठ तुम नीले रहियो’ और ‘ दुख दूना रे ’। ग्रामीणों के दैनिक जीवन से संबंधित जो भी विषय-वस्तु कवि की आंख के सामने से गुजरी उसने उसे अपने गेय स्वरों में बांध दिया है।

 ‘ मनोज’ उदीयमान कवि है फिर भी उनमें सृजन प्रतिभा काफी दृष्टिगोचन होती है। डा. भटनागर ने अपनी भूमिका में जिस विश्वास मंगलाशा को प्रगट किया है वही हमारी भी है। उनका कहना है ‘‘ मनोज की काव्य साधना ग्राम्य जीवन की रंगीनी और तरूणाई के नये पनों की चित्रबेला की नई निधि हमें देती रहेगी, इस विश्वास और मंगलाशा के साथ...

हनुमान वर्मा


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