Thursday 4 April 2013

सिकता कण 1952,समीछा

सिकता कण 1952-माधव शुक्ल मनोज
प्रथम कविता संग्रह समीछा- ज्वाला प्रसाद ज्योतिषी और शिवकुमार श्रीवास्तव  -सागर


 गीत और गायक
सिकता कण 1952-माधव शुक्ल मनोज
जब सत्य का सुन्दरता से संयोग होता है, तब कला का आविर्भाव होता है। कला सत्य की सौन्दर्यमयी अभिव्यक्ति है। यदि सत्य न हो तो कला की कल्पना नहीं हो सकती और सौन्दर्य न हो तो अभिव्यक्ति कला नहीं कही जा सकती।

जीवन की मंजिल पर चलते मानव हृदय में उठने वाली अनुभूतियां उद्वेलित हुआ करती हैं। उनकी नश्वरता को देख दार्शनिक उन्हें सत्य न मानेगा लेकिन अपने आविर्भाव के क्षण में मान हृदय को परिपूर्णतः आप्लावित करने की उनकी शक्ति ही उनका सत्य है और जब तक हमारी अनुभूतियों में यह सत्य मौजूद है उनकी अभिव्यक्ति कला हो सकती है।

मानव कितना भी भिन्न क्यों न हो उसने धर्म, जाति,वर्ण सामाजिक व्यवस्था आदि के कितने भी व्यवधान क्यों न खड़े कर लिये हों लेकिन जिस क्षेत्र में वह सम्पूर्णतः समान है वह है अनुभूतियों का क्षेत्र। कौन है जिसके हृदय में फूलों जैसे सुकुमार बच्चों को देखकर स्नेह नहीं उमड़ पड़ता? कौन है जिसका हृदय अनाचार को देख रोष ने नहीं फड़क उठता? किसकी आत्मा विद्रोह के लिए नहीं फुफकार उठती? और कौन है जिसका हृदय भूख से तड़पते मानव समाज को देख करूणा से चीत्कार नहीं कर उठता?

हो सकता है कि हमारी या उस अनुभूति की तीव्रता में उस या इस मानव की अनुभूति की तीव्रता से अंतर हो हमारे संस्कारों, वातावरणों ने हमारी इस या उस अनुभूति को कम या ज्यादा तीखा बना दिया है लेकिन यह एक अमिट सत्य है कि हड़डी और मॉस की तरह जिस प्रकार हमारे ‘ारीरों का गठन समान है उसी तरह अनुभूतियों की दृष्टि से हमारे मनो जगत का निर्माण भी एक सा ही है।

अनुभूति जहां शब्दों के रथ पर चढ़कर निकलती है वहां काव्य का सृजन होता है और जहां अनुभूति के वाहक शब्द संगीत की ताल पर अपनी गति संभाल कर चलते हैं, वहां गीति काव्य का अविर्भाव होता है।
अनुभूति की तीव्रता शब्दों की स्वरमयता, अभिव्यक्ति की सुकुमारता और संक्षिप्तता गीतति काव्य की मुख्य विशेषतायें हैं। मिश्री के ढेले का कण कण जिस तरह माधुर्य से ओत-प्रोत होता है, गीति काव्य की प्रत्येक कड़ी उस प्रकार अपने माधुर्य में परिपूर्ण होती है।

सिकता कण ‘‘मनोज’’ उपनाम से हिंदी जगत को आकृष्ट करने वाले सागर के तरूण गायक माधवप्रसाद जी शुक्ल की प्रारंभिक रचनाओं का संग्रह है। ‘‘मनोज’’ का संसार सुख-दुख पीढा - क्रीड़ा का संसार है। उनके संसार में जीवन के आनंद के साथ साथ उनकी तिज्ञता भी है। जीवन से सम्बद्ध ये सभी अनुभूतियां उसके काव्य में सहचर हुई हैं। पर इन सब के ऊपर वह प्रेम का साधक है और मस्ती का आराधक है।

सिकता कण में यही प्रेम और मस्ती के भाव मानो बोल उठे हैं। उसके प्रथम गीत से प्रकट है कि मनोज के हृदय में प्रेम की वेदना है। वह किसी प्रिय के चित्र को द्रगों में संजोए है।

 कल्पना का लोक मेरा।
 हूं खड़ा पथ पर अकेला।
 आज आमंत्रित किसी को
 में विजन में कर रहा हूं।
 एकाकी पन से क्षुब्घ होकर उसकी आत्मा चीखती है-
 आज किससे बात कर लूं,
 दूर हैं नक्षत्र मेरे।

और मिलन की सुधी करके वह सोच रहा है-
 कैसे भूलूं घनी छांव को,
 फूट कमी कब एक किरन।
 नयन  बावरे भर भर आये,
 जब  जब तेरे उठे चरन।

और विरह की इस वेदना में वह निवेदन करता है-
 श्याम घन में है तुम्हारी,
अर्चना की मौन घड़ियां।
क्षुब्ध नभ में है तुम्हारी,
सान्त्वना की मुग्ध लड़ियां।

और

दुख भरे व्याकुल हृदय की,
तुम सजनि मधु दामिनी हो।

विरह की इस व्यथा के तीव्रतर होते होते मनोज का स्थूल प्रिय विराट में विलीन हो चलता है। किसी अस्थि मांस की प्रेयसि की उसकी कल्पना प्रकृति प्रेयसी में लीन हो चलती है और उसका हृदय गा उठता है-
 आवाज तुम्हारी ही तो है।
 तुमने तारों में चंचल सी,
 झिलमिल मादकता है भर दी।
 मद भरी चांदनी रातों में,
 कंचन सी मोहकता धर दी।
 झिलमिला उठी जो पलकों में,
 तुम एक लहर हो बेसुध सी,
 भर गई नशा जो नयनों में।

इस लघु से विराट की ओर उन्मुख होता मनोज का प्रेम और उसकी लेखनी में अधिकाधिक माधुर्य और निखार लाता है-
 तुम तो सरिता हो एक लहर हो,
 यह कूल तुम्हारा अलिंगन।

और
 सच कहता हूं तुम्हीं एक जो
 मेरी प्यास बुझा सकती हो।
 जैसे मधुर गीतों की सुष्टि कराता है।

अस्तु, सिकता कण एक प्रेमी हृदय की वेदना के उद्गार हैं।
 कवि के स्वप्न फूल से कोमल हैं लेकिन वह कहता है-
 शूल में मेरी जवानी!
 चल पढ़ी ले आंसुओं में,
 जिन्दगी अपनी कहानी।
और भी
 प्रीत मेरी जिन्दगी से,
 जिन्दगी संगीत में है।

मनोज की यह प्रीति ओर यह जिन्दगी में आशा करता हूं कि कविता प्रेमियों को आनंद देगी। मुझे विश्वास है कि उनकी नवीन कृतियों के संग्रह कांटों के फल और इन्द्रजाल भी शीघ्र साहित्यकों के समक्ष प्रस्तुत हो सकेंगे। मैं मनोज के अधिकाधिक विकास  का आकांक्षी हूं।

ज्वाला प्रसाद ज्योतिषी
सागर मध्यप्रदेश
12 फरवरी 52



पुस्तक समीछा


आत्माभिव्यक्ति की साध मानव हृदय की बहुत बड़ी साध है। अपने हृदय की दूसरे से कह लेने पर हृदय हल्का हो जाता है। दुख हो या सुख मनुष्य को उसे अपने हृदय तक ही सीमित नहीं रख सकता यही सृष्टि के संगीत का रहस्य है और आत्माभिव्यक्ति की यही आतुर आकांक्षा, यही प्यास काव्य का उद्गम है।

वैसे प्रत्येक व्यक्ति में अनुभूति का ज्वर रहता है। परन्तु प्रत्येक के पास अभिव्यक्ति की शक्ति नहीं होती। अपने आप को व्यक्त कर सकने की यह शक्ति ही कवि की अपनी विशेषता है जो उसे लोक से साधारण जन समुदाय से प्रथक करती है। प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में वही दुख, सुख,आशा, निराशा, तृष्णा-परितृप्ति आकांक्षायें तथा सपने रहते है। परन्तु उन्हें वह व्यक्त नहीं कर पाता तो मुग्ध होता है, उसे लगता है कि अव अपने आप को व्यक्त कर सका है, कवि की रचना में उसे आत्माभिव्यक्ति का आनंद मिलता है। यही कतव का ‘स्व’-अपनी वैयक्तिक सीमायं लांध कर लोक के स्व को अपने में समाहित कर लेता है। उसका स्वान्तः सुखाय उसके पाठकों का शास्वत सत्य जितना अधिका होगा उस कवि की रचना उतनी ही लोक रंजक और प्रिय होगी और जो कवि अपनी भावनाओं के प्रति जितना ईमानदार होगा उसकी अभिव्यक्ति में यह सत्य उतना ही स्पष्ट और पूर्ण उतरेगा। कवि का हर गीत उसका अपना ही नहीं एक वर्ग, एक समाज, एक समुदाय का पूर्ण प्रतिनिधित्व करता है और सथ ही कुछ अंशों में समस्त मानव समाज का। यह बात ‘सिकता कण’ के कवि मनोज के साथ भी है उसने अपनी जो अनूभूतियां अपने इस प्रारंभिक गीतों में बांधी है वे उसकी कल्पना के लोक की झांकी है।। कई स्थानों पर यह झांकी बाकी है-रम्य है। मनोज के ये गीत एक तरूण के गीत हैं जो प्यार की मंजिल का पथिक है इसलिए सभी गीत प्रेम परक हैं। उसने-
रोज प्रातः और संध्या,
के सलौने देख मेले।
इस धरा पर प्यार लेकर
खूब पथ पर खेल खेले।

प्यार लेकर उसने जो खेल खेले हैं वे उसे सब याद हैं और उसके गीतों में वे खूब उतरे हैं।
याद जीवन की कहानी ,
के लिखे थे गीत मैंने।

इस जीवन की कहानी में हम उसके प्रिय को हर जगह छाया हुआ पाते हैं।
उसका यह प्रिय न तो ब्रम्ह है और न प्रकृति, प्रेयसी परन्तु उसके प्रिय में निखिल सृष्टि को रंग देने की ताकत है और यह ताकत न भी हो तो उसने कवि की दृष्टि को तो अवश्य बदल दिया है और इस तरह उसके लिए सष्टि भी बदल गई है-
स्वरित सावन की घटा में
ळी तुम्हारी बांसुरी है
सजग आंखां में छलकती
रूप की ही माधुरी है
वह स्वीकार भी करती है-
तुम एक लहर हो बेसुध सी,
भर गई नशा जो नयनों में।

मनोज के इन गीतों में आंसु कम हैं-कहिये है ही नहीं। एक उल्हास ही है-वह रात की माधुरी का पुजारी होते हुए भी प्रातः की आकांक्षा करता है-
प्राण गा दो गीत भोले
रात के मीठे स्वरों में
मुस्करा कर प्रात बोले

साथ ही वह चाहता है कि उसके प्रिय का स्वर द्वैत को मिटा दे-
गान में लहरें उठा दो
धरणि अंबर एक हो ले।

मनोज वह गायक है जो प्रिय के गीता गाता है और गीतों में प्रिय को पाता है। गीत और मनमीत में अंतर नहीं रह गया है उसके निकट-
मीठे स्वर में गा लेता हूं
क्योंकि रागिनी तुम्हीं मीत हो।
जीवन स्वर की एक ताल पर
चंचल सा प्रिय तुम्हीं गीत हो।

मनोज के गीतों में एक सादगी और तन्मयता है। स्वर में माधुर्य है। कई जगह उसने बड़े सलौने प्रयोग किये है। मुझे विश्वास है कि सिकता कण की कवितायें, कविता प्रेमियों को अपनी ओर आकर्षित कर लेंगी।
मनोज भविष्य की आशा

शिवकुमार श्रीवास्तव
सागर विश्वविद्यालय
16 फरवरी 52

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