Friday 5 April 2013

माटी के बोल 1962-समीक्षा



भूमिका  ब्रजभूषण सिंह ‘आदर्श’ सागर, 1962 

दृत गति से होने वाले विकास के इस युग में‘‘ माटी के बोल’’ समझना था समझा सकना एक दुस्तर कार्य है। विकलांग अनुभूति और बौद्विकता से बोझिल काव्यवृत्ति ही आज का साहित्य का आधार बनने का स्वप्न रचती हो तब सहज रूप से निःसुत ‘माटी के बोल’ ही उसका पथ रोक, सही दिशा’-निर्देश दे
सकते हैं। ऐसे माटी के बाल ही भारतीय संस्कृति और सीयता के सजग प्रहरी होते हैं और ग्रामीण भारत की आत्मा का प्रकाश फैलाते हैं।

हिन्दी साहित्य में सर्वागीण ग्रामीण -जीवन को परखने का प्रयास प्रेमचंदजी के कथा-साहित्य में सर्वप्रथम मिलता है। उन्होंने मूक ग्रामीण जीवन को वाणी दी और जीवन के अंतिम क्षणों तक उसके लिए जूझते रहे। उनकी मृत्यु के उपरान्त आधुनिकि हिन्दी-काव्य में कविवर सुमित्रानंदन पंत ने ‘ग्राम्या’ द्वारा काव्य का ध्यान ग्रामीण जीवन की ओर विशेष रूप से आकर्षित किया। पंत जी का यह कार्य महत्वपूर्ण रहा, इसमें संदेह नहीं, किन्तु माटी के बाल‘ग्राम्या’ में भी स्वाभाविक रूप से मुखरिन न हो सके। इसमें कवि ग्रामीण जीवन को बौद्धिक सहानुभूति ही दे सका और वह भी एक विशेष राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित होकर। ‘ग्राम्या’ की आधिकांश कवितायें साम्यवाद के अत्याधिक निकट हैं, दुःखवाद से बोझिल तथा ग्रामीण जीवन के रोमान्सों का चित्रण करती हैं। ‘ ग्राम्या’ का महत्व इसलिए अधिक हैं क्योंकि यह प्रथम काव्य-कृति है जो नागरिक बौद्धिक चेतना का ग्राम्य जीवन की ओर होने वाले रूझान का संकेत देती हैं। वह प्रेमचंद के कथा-साहित्य के मूलाधार का काव्य में विस्तार पाने का सराहनीय प्रयास है आधुनिक हिन्दी काव्य के विगत पच्चीस वर्षे में अनेक कवियों ने ग्राम्य जीवन को अभिव्यक्ति दी है। महाकोशल एवं छत्तीसगढ़ के जिन कवियों ग्राम्य जीवन का अंकन किया है उनमें प्रमुख श्री माधव शुक्ल ‘ मनोज’ ( सागर) और बच्चू ‘जांजगीरी’ (बिलासपुर) हैं। उनमें से ‘ मनोज’ जहां अपने क्षेत्र के लोक गीतों एवं राष्ट्रीय जन-जाग्रति की भावना से प्रभावित हैं, वहां बच्चू जांजगीरी ने ग्राम्य प्रकृति को ही तन्मयता के साथ संवारा है। ‘ मनोज’ की कविताओं में भाव पक्ष प्रबल है तथा ‘बच्चू’ जांजगीरी का आग्रह कला पक्ष की ओर ही अधिक रहा हैं।

‘माटी के बोल’ मनोज जी का तीसरा काव्य संग्रह है जो ग्रामीण जीवन की अनुभूतियों की गीता है सच तो यह है कि ग्रामीण जीवन की सुकोमल भावनाओं के चित्रण के लिए कवि को माटी के प्राकृतिक गुणों से युक्त होना चाहिए। उसका हृदय माटी सा निर्लिप्त, उदात्त, स्निग्ध होना आवश्यक है जिससे वह सहज रूप से सबको अपने अंक में समान रूप से समेट सेके, स्नेह दे सके। ऐसा होने पर खेतों, खलिहानों चैपालों, झोपड़ियों तथा उनको गुंजारित करने वाले ग्रामीणों की रागात्मक छवियों को स्वरूप दे सकेगा। आधुनिक हिन्दी काव्य धारा में इसे दुर्लक्ष्य किया जा रहा है। इस दिशा में जो छुटपुट प्रयास किये भी गये उनमें प्रयासजन्य बौद्धिकता ही अधिक दिखलाई देती है। माटी के रंग तो सामाजिक यथार्थ के ज्ञान के साथ अनुभूति की सच्चाई से निखरते हैं और चित्रण की शक्ति से ही माटी की मूरतें संवरती हैं 
‘मनोज जी ’ की ‘ माटी के बोल’ सशक्त हैं। इसका एक मूल कारण संभवतः यह है कि वे एक ग्राम पाठशाला में अध्यापक हैं और ग्रामवासी हैं। ग्रामीण जीवन को उन्होंने कल्पना की आंखों से नहीं देखा है, वरन उसमें डूबकर उनकी अनुभूति ने अभिव्यक्ति पाई है। उनके काव्य की विशिष्टता ग्रामीण जीवन एवं प्रकृति की विस्तृत छवियां हैं जो उनके दिल और दिमाग दोनों पर गहरी उतर चुकी हैं। धरती उसके लिए सर्वस्व है और इसीलिए धरती माता की वह अर्चना करता है-

इस मिट्टी के ढेलों को, 
गांव गांव के गैलों की,
महनत की सब फसलों की-
गुमसुम खड़ी मड़ैया की!
जय-जय धरती मैया की!

नैराश्य की प्रतीक गुमसुम मडैया के दिन फिरने की आशा कवि को है-

हाथों में कल का अब सूरज नया है
समय का बदलेगा ठांव, नदिया नीचे बहे।

मनोज जी आस्था के कवि हैं। यथार्थ को उन्होंने विस्मृत नहीं किया, किन्तु नये जागरण के प्रति उनकी दृढ़ आस्था ने प्रगतिवादी कवि की निषेधात्मक धारणा का आवरण दूर रखा है। 

भोली सी सपनों में बैठी है आशा
कांटों में चलते हैं पांव, नदिया नीचे बहे।

जिस प्रेरणामयी भावात्मक मनोभूमि पर उसके पांव अंगद से टिके हैं वह अखंडित है।

नदी हमारी, खेत हमारा, गांव हमारा है
धरती के चप्पे-चप्पे पर पांव हमारा है
भुनसारे की किरन शीश पर चंदन सी दमके-
तूफानों में विजय हमारी, सांसों में पुरवैया रे!
हम सूरज के भैया रे।

और इसीलिए वह एक नया नारा देता है, ऐसा नारा जो राष्ट्रनेता पं. नेहरू के ‘ आराम हराम है’ सूक्ति की भावपूर्ण व्याख्या है-

धरती के बेटा हुंकार भरो रे।
सूरज के भैया भुनसार कारे रे
तुम सांसों की तानें गुंजार चलो रे-
फंूक चलो जीवन में अपनी बंसुरिया-
चले चलो, बढ़े चलो, अपनी डगरिया!

ऐसे अवसर पर कवि उनके आत्म गौरव और विश्वास को भी आंखों की ओट नहीं होने देता-

तुम मेड़-मड़ैयो के राजा, तुम दुपहर सांझ सकारे हो।
तुम ही हो माटी के सोना, तुम पानी हो बदरारे हो!
तुम सोन चिरैया बिरछा की, हो फूले-फले समैया
तुम चंदा के भैया!
तुम सूरज के भैया!

ऐसे ग्रामीण प्रकृति के भावपूर्ण चित्रों से ही कवि के हृदय का उद्धाटन होता है। ‘ मनोज’ जी की इन कविताओं में भावनाओं का निश्छल प्रवाह देखने को मिलता है। लययुक्त दंद में गतियुक्त चित्रण एवं भावपूर्ण कल्पना विद्युत धारा सी मचलती हुई चलती है-

बासन्ती रंगों में आशायें नाच रहीं
फसलों की पाती को पुरवैया बांच रही
तरूओं पर थाप लगी, गौरयां डोल रहीं
सांसों की बांसुरिया, मन में रस घोल रही
कुंजन-कछारन में केलों से भरी गहर-
फुलवा संग इठलाकर लूम रही हो!
पतली सी पुरवैया घूम रही हो!

कवि ने बुंदेलखंडी लोक गीतों से अपना तादात्म्य स्थापित कर कविता के माध्यम से गीतात्मक भाव धारा को ‘लिरिकल’ बनाया है। उनकी भाषा में कृत्रिमता नहीं है और वह जन भाषा के निकट है। संग्रह की अनेक कवितायें लोक गीतों के दर्शन, नाद-सौन्दर्य, लयात्मक गति और इन्द्रधनुषी भाव रूपों के कारण चटकदार बन पड़ी हैं। उनकी कविता में धरती के बेटों की आस्था और विश्वास का तथा उनके जीवन पक्षों का अंकन हुआ है। उन्होंने ग्रामीण जीवन की अपराजेय भावना को अभिव्यक्ति दी है-
गांव के राजा, हो तुम महाराजा
गेहूं को देश बना जईयो!

सूरज संगाती है, बादल की पाती है
फसलों का संदेशा पुरवैया लाती है
महनत कर हम तुमको अब मंजिल पाना है-
उठते ही रहना है, जीवन भर पांव-

छायावादी खेमें में मनोज की कवितायें भले ही स्थान न पायें प्रगतिवादी काव्यान्र्तगत ग्राम्य जीवन की सुनिश्चित चैखटे में भी भले ही उनकी कविताओं को ‘ फिट ’ न किया जा सके और प्रयोगवादी भी इन कविताओं को न स्वीकारें, किन्तु चूंकी इनमें चैपालों में गूंजने की शक्ति है वे ग्रामीणों की धरोहर बनने की क्षमता रखती हैं। इन कविताओं ने गांवों को लोक वाणी दी है और भाव और कला की नई भूमियों का स्पर्श किया

मैं तरूण कवि के इस नये काव्य संग्रह का अभिनंदन करता हूं

सिविल लाईन्स
सागर
12.3.1962
ब्रजभूषण सिंह ‘आदर्श’ 

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