Tuesday 19 November 2013

डा. हरिवश राय बच्चन जी का पत्र माधव शुक्ल 'मनोज' के नाम



भूली-बिसरी याद
डा. हरिवश राय बच्चन जी का पत्र  5 नवम्बर 1964
माधव शुक्ल 'मनोज' के नाम पुस्तक ‘एक नदी कंठी’ के बारे में....

सम्मान्य बंधु
एक नदी कंठी सी की प्रति के लिए आभारी हूं
इधर-उधर उलटने पलटने को पुस्तक उठाई थी कि पूरा पढ़ गया। यह आकर्षण की कम उपलब्धि नहीं।
आप भाव समृद्ध हैं और आप की भावना नये बिम्बों को स्वतंत्रता से पकड़ती है। आप की उन्नति-प्रगति के लिए मेरी शुभकामना स्वीकार कें। आप की कृतियों से भी परिचय प्राप्त करने का अभिलाषी हूं। स्मरण के लिए आभारी
विनम्र-बच्चन

डा. हरिवश राय बच्चन जी को माधव शुक्ल 'मनोज' की यह कविता बहुत पसंद आई और उसी शैली में कुछ कवितायें धर्मयुग में भी लिखी थी।
                                                                                         
फल की स्वर लिपि



हम ऐसे फल हैं
जो डाल से टपक कर
पास की अंधेरी खाईयों में
झुरमुटों में लुड़क कर
सूखी पत्तियों में ढंक गये हैं।

हमने बहुत चाहा
बता दें-हम यहां हैं
अंधेरी खाईयां पकड़े हुए हैं
झुरमुटें हमको लपेटे हुए हैं
कांटे सभी नोकें गढ़ाये हैं
सूखी सड़ी ये पत्तियां
मुंह दबाये हैं।

हम तो सभी के पास आना चाहते हैं
वृक्ष में फिर से लटकना चाहते हैं
हम संतोष को सिर पर लगाकर सोचते हैं
कुछ देर ऐसा ही सही
इस आज को मंजूर शायद है यही ?








Wednesday 13 November 2013

माधव शुक्ल ‘‘मनोज’’ के काव्य में बुंदेली चेतना और संदर्भ-दो-लघु शोध प्रबंध


माधव शुक्ल ‘‘मनोज’’ के काव्य में बुंदेली चेतना और संदर्भो का अध्ययन 
 आधुनिक बुन्देली कविता के सन्दर्भ मैं माधव शुक्ल 'मनोज' के काव्य का अनुशीलन 
 लघु शोध प्रबंध-एक-अतुल कुमार श्रीवास्तव-सागर
 अध्याय - 5
बुन्देली चेतना से अभिप्राय:  बुन्देलखण्ड के लोकजीवन में व्याप्त चेतनाशन्य है और जो एक परम्परा के प्रवाह में जीवित रहता है।1
से है। अब यहॉ ‘‘लोक’’ अपने आप में बड़ा व्यापक शब्द है। शब्द कोशों में इसके कितने ही अर्थ मिलेगें, जिनमें से सामान्यतः दो अर्थ विशेष प्रचलित है - एक तो विश्व अथवा समाज और दूसरा जन सामान्य अथवा जन साधारण । आज वर्तमान साहित्य के भेंद के विषेश संदर्भ में ‘‘लोक’ मनुश्य समाज का वह वर्ग है, जो अभिजात्य संस्कार, शस्त्रीयता और अहंकार से
मनोज जी की कविता में जो बुन्देलखण्ड के गॉवों  के लोक जीवन का चित्रण हेाता है उससे लगता है कि उनके काव्य में बुन्देली चेतना कूट-कूट के भरी है। ये तो निष्चित है कि, हर क्षेत्र की लोक भाशा, उसकी टोन, उसकी कहन अलग प्रकार की होती है। हर अंचल की जमीन और जलवायु में भी अन्तर होता है और इन्ही सब कारणों के चलते वह क्षेत्र ‘‘विषेश’’ हो जाता है। इसी तरह बुदेल खण्ड अंॅचल की कृशि प्रधान लोक संस्कृति में पले पुसे लोगों में संतोश की भावना अधिक है। यहॉ के पर्वत, यहॉ की नदियों का सौन्दर्य देखते ही बनता है। हवाओं से क्रीड़ा करती, लहलहाती यहॉ की फसलों में  स्वछंद  श्रृंगार की प्रवृत्ति है। तो यहॉ के जंगल और कठोर चट्टानों से घिरी हरियर धरती से कर्म और करूणा की सुगंध आत है।
दर असल लोक भाशा और लेाक वातावरण के विभिन्न रूपों में लिपटा अंतरंग एक है। अगर हम कुछ बुन्देली लोकगीतों की चर्चा करे ंतो देखेगे कि लोककवि ईसुरी ने अपनी फागों में अपने भोगे हुए सुख-दुख, गॉव में पड़े अकाल के षिकार गरीब किसानों की भूख का वर्णन किया है। असल में लोक कवि का मन लोक के साथ चलता है, उसमें लेाक का अतीत, वर्तमान और भविश्य सब रहता है। उनकी कविताओं में पारिवारिक संबंध, सामाजिक उत्सव, समस्यायें, जीवन के आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक चित्र लिखे होते है। इसी तरह बुन्देली के कवि मनोज की रचनाओं में हमें लोक जीवन के सुख दुख, उल्लास, हर्श विषाद और संघर्शो की अभिव्यक्ति मिलती हैं बाल कृश्ण भट्ट ने लिखा है ः-
‘‘ अब ग्राम्य कविता पर ध्यान दीजिये । मल्लाहों के गीत, कहारों का कहरवा, विरहा अथवा आल्हा आदि सब केवल गवॉंरों की रोचक कविताएॅ । उनकी प्रषंसा में हम यदि कुछ कहें तो नागरिक जन जो भाशा की उत्तम कविता के रसपान के घमंड में फले नहंी समाते अवष्य हम पर आक्षेप करेंगे और हमें निपट गवॉंर समझेंगे।2
इन सब की परवाह किये बिना कवि मनोज ने अपनी कविता में ग्राम जीवन को अपनाया है। वे आम जन के बहुत निकट रहे, इसी कारण उनकी आम जीवन में पर्याप्त रूचि रही है। ऐसी रूचि का कोई एक कारण नहीं है, अनेक कारण है। पहला कारण है कि वे लोक जीवन में पले और बड़े हुए, दूसरी उनकी धारणा है कि मानव विकास के लिए लेाक संस्कृति का ज्ञान अत्यंत आवष्यक है। यही कारण है कि कवि मनोज का काव्य सृजन ग्राम्यानुभूति मंे डूबा हुआ है। ग्रामों की पीडा उनके सुख दुख और उनके साहस को उन्होंने बहुत निकट से देखा है। गॉव को भोर से लेक आधी रात को बेला फूलने तक उनकी कवि दृश्टि गॉव की पूरी दिन चर्या को निहारती है। ग्राम जीवन की तमाम आहटें उनकी कविताओं में स्थान पा गयी है।   यहॉ ऋतुओं, हवाओं, पषु पक्षियों मेलों ओर तीज, त्यौहारों सब की भागीदारी सुनिष्चित की गयी हैं।
    हम मनेाज जी की कविताओं में निहित बुन्देली चेतना को इस प्रकार समझ सकते हैं।


ग्राम्य जीवन का चित्रण ः
    मनोज जी को सुनते या पढ़ते हुए हमें ग्रामीण परिवेष का चित्रण उभरता प्रतीत होता है जैसे ः-
    हरे भरे से गॉव में ।
    सूरज सोनेा सो बरसायें, धरती बिरछा पात हो ।
    हॅंसे दूधिया चॉद चदनियॉ, गौरी-गौरी रात हों ।।
    मनोज जी के ग्राम्य काव्य में बुन्देली ग्रामीण परिवेष का नैसर्गिक सौदर्य चित्रित हुअ है। इनके काव्य में सूरज-चॉद माधुर्य और सौदर्य की अक्षय राषि बन गये हैं।
और देखें ः-
    नीचे है खेतो में फसलों का झंडा ।
    टूटी झुपड़िया की छॉव, नदिया नीचे बहे ।।
    ऊॅची टगर मेरा गॉव, नदिया नीचे बहे ।
    नदियें और उनके वक्ष पर तैरती लहरें यहॉ कविता के दोनों किनारो के मध्य निरन्तर यात्रित हो रही है। बुन्देल खण्ड की प्रकृति का पल-पल वरिवर्तित वेष यहॉ न जाने कितने रहस्य, माधुर्य और पारदर्षी सौदर्य का निर्झर बन कर प्रवाहित हुआ है। 
कवि मनोज ने बुदेली ग्रामों के समस्त गत्वर सौदर्य को ग्रहण करके अपनी संवेदनषीलता का परिचय दिया है ः-
गली-गली गॉवन में, नदियॉ पहारन में ।
पतली सी पुरवैया घूम रही हो ।।
अमवा की डारों को चूम रही हो ।
पतली सी पुरवैया धूम रही हो ।।
अब यहॉ गॉवेां का रूप सौदर्य कवि के आल्हादमय संवेगों को  ही नहंी जगाता, वरन् उसकी ग्राहक इन्द्रियों को उत्तेजित करके पूरी तरह सक्रिय भी बना देता है। इन्ही से प्रभावित हो कर कवि ने गॉवों का मनोहारी चित्रण किया है जैसेः-
सूनी बगिया, ओ मेरे भैया ।
चैन चिरैया लिआईयों ! ।।
कब से कितनो हिया पिरानो ।
कितने बदलों है सिरहानों ।।
कवि मनोज ने अपने काव्य में ग्रामीण सौन्दर्य के अलावा बुदेली ग्रामीणों की समस्याओं पर भी विचार किया है। जैसे-जैसे कवि की भावनाएं  परिश्कृत होती गयी वैसे-वैसे उनकी कविता वैचारिक होती गयी यथा ः-
गॉवों में निवासरत ग्रामीण किन आलावों से झूझते हैं, उनका जीवन संघर्श से भरा होता है। कवि ने उनकी इस दषा पर भी करूणा की दृश्टी डाली है ः-
टूटी डगाल रे, रमुआ के बाग की ।
चटकी है ऐसी जैसे टूटी हो बॉंह ।।
गाढ़े से दिन में हो फीकी सी छॉह ।
टूटी है एक कड़ी, रमुआ की फाग की ।।
टूटी डगाल रे, रमुआ के बाग की ।।
कवि गॉव के दुख में “ाामिल है और भावनाओं में वह लिखता है ः-
आई हिलोर फटे छाती
    दुख दूना रे ।
दुख दूना रे ।
इन अॅखियन से टप टप टपकी
बिन बोले असुवन की बुदियॉं।
रचना प्रक्रिया के संबंध में अक्षेप ने कहा है कि ‘‘परिवेष की चेतना आज की प्रबल आवष्यकता है। रचनाकार के परिवेष से तात्पर्य है। जिसके बीच वह जीता है जिससे वह प्रभावित होता है।3
व्यापक लेाक दृष्टि ः-
    मनेाज जी मात्र भावनाओं के ही कवि नहीं हैं, वो तो लोक से जुड़े कवि है। यहॉ लोक दृश्टि से अभिप्रायः केवल लोक जीवन से नहीं है, गॉवों के अलावा उस संपूर्ण समाज से भी हैं, जो नगरों में भी रहता है। इस प्रकार से देखने में मनोज जी ने निष्चित ही उस व्यक्ति को अधिक सूक्ष्मता से देखा है जो सुबह से “ााम तक मेहनत करता है जैसे ः-
    टेढ़ी सी गलियों में जीवन भर चलने है ।
    अॅधियारी दुनिया में दीपक-सो जलने है ।।
    दर्दीले मौसम में होत दुख दूना है ।
    फिर भी इन हाथों से अंगारे छूना है ।।
    कवि ने एक आम आदमी को बहुत करीब से देखते हुए, मन की दषा का वर्णन बखूबी किया हैं यथा ः-
    जिन्दगानी भर ।
    चकिया से चले ।।
    गेहॅू से पिसे ।
    चैतरफा घुमें ।।
    घरघरानें दरदरानें ।
    सजा सी काटत ।
    जेल खाने में पिड़े ।।
    मनोज जी एक ऐसे कवि है जो अपने-आपकों धरती और किसान का कवि मानते हैं। ईसुरी से प्रारंभ होकर आज की पीढ़ी तक चली आती विषाल जन क्षेत्र की जातीय  चेतना की अमूल्य उपलब्धि के रूप में माधव “ाुक्ल ‘‘मनोज’’ के काव्य को समझा और जाना जा सकता है। इन्होंने अपने काव्य के माध्यम से आम जन के अनुभवों को अपनी कविता का पदार्थ बनाया है, तथा उसे और अधिक, जीवन्त, सार्थक, मूल्यवान और प्रेरक रूप प्रदान करते हुए पुनः जनता को लौटा दिया है। इनकी कविता में बुन्देली चेतना का प्रखरतम् विकास देखने को मिलता है। जब वे गर्मी की धूप में कुदाल  को धरती पर चलाते हुए इन्सान को देखते है तो वह द्रवित हो उठते हैं। उल्लेखनीय तथ्य है कि मनोजकी अधिकांष कविताओं में किसान को प्रायः काम करते हुए चित्रित किया गया है कवि ने किसान को काम करते हुए निकट  से देखा है, उसके श्रम को पहचाना है दूर से खड़े होकर उसकी स्थिति की कल्पना नहीं की है। कहने का अभिप्राय यह हैं कि निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि मनोज जी के काव्य में ग्रामीणों श्रमिकों के प्रति जो भाव व्यक्त हुुए है, वे उनके मानववादी दृश्टिकोण का परिणाम है।
लुप्त होते ठेठ बुन्देली ‘ाब्दों का प्रयोग ः-
    आज के आधुनिक युग में जहॉ हम बुन्देली के पुराने और मीठे “ाब्दों को भूलते जा रहे हैं। वही कवि मनोज जी ने अपनी कविताओं में ठेठ बुन्देली “ाब्दों का प्रयोग किया है। जहॉ क्षेत्र के कई आधुनिक कवियों ने खड़ी बोली की ओर रूख किया, किन्तु मनोज जी ने बुन्देली को अपनाया हैं और उसे “ाक्ति सम्पन्न भाशा के रूप  में देखा है। उन्होंने न केवल प्रत्येक “ाब्द की आत्मा में उतरने का प्रयास किया, अपितु पर्यायवाची “ाब्दों के बीच के अन्तर को ध्यान में रखते हुए सही भाव के लिये सही “ाब्द के प्रयोग पर अधिक जोर दिया है यथा ः-
        फागुन आ गओं ।
        नवरंग छा गओ ।
        हो गई जा धूरा गुलाल पिया ।।
    बुन्देली के कई “ाब्द और कई प्रतीक उन्होंने अपनी कविता में मोती की तरह पिरोय है जैसे ः-
        जॉता चक्की, ओखल मूसल ।
        सीके टंगे मियार है ।।
        चिथडों से वह लदी अरगनी ।
        बेड़ा भीतर द्वार हैं ।।
    मनोज जी की कविताओं में उनका झुकाव बुन्देली जन साधारण की बोलचाल की “ाब्दावली की ओर देखने में आता हैं । जिसका कारण हैं कि उनके काव्य में जनपदीय और आॅचलिक “ाब्दों की अधिकता है यथा ः-
        हड़िया कुठिया और कठौता ।
        रस्सी आॅगन चाक है ।।
        कंडा लकड़ी भरा मचेरा ।
        पौरों में अधिंयॉर हैं ।।
और उदाहरण देखें ः-
ऽ    अपनी धुन में भूले ।
देखो फुकना से फूले ।।
ऽ    नैनन खों आॅजें ।
हंसबे के काजें ।।
कुजाने का उमड़ों घटा सो ।
फिर को जो भॉ रओ मठा सो ।।
प्रतीकों का प्रयोग देखें ः-
ऽ    लगे नोंन सी जा जिंदगानी ।
बाते फीकी गाजर सी ।।
    उॅसई सी जा लगन लगी हैं ।
            दुनियॉ  जूठी पातर सी ।।
ऽ    लटके रें गये रोंठा सपने ।
ऽ    बड़ी रसीली कॉ गई रातें ।
कॉ गये वे दिन गन्ना से,
    कहने का अभिप्राय है कि मनोज जी के काव्य में बुन्देली के ठेठ “ाब्द और प्रतीक प्रयोग सहज तरीके से किये गये हैं जो उनकी बुन्देली चेतना को स्पश्ट करते हैं।
लोक संगीत और कवि ‘‘मनोज’’ ः
    मनोज जी ग्रामीण परिवेष में पले बड़े और वे लोकगीतों की समझ और उनके प्रति पर्याप्त रूचि रखते हैं । वे एक अच्छे गायक भी है। प्रायः संगीत के क्षणों में लोक गीत के स्वर ही जुबान पर अधिक आते हैं। इसी भाव से प्रेरित होकर और अपनी इन्ही मान्यताओं के आलोक में मनेाज जी का लोक संगीत महत्व रखता है।अपनी इसी लोक संगीत की समझ के चलते वह राईपर मोनोग्राफ लिख पाये है। उनके काव्य में जहॉ भी लोकसंगीत का असर है, वहॉ लोक चित्त को गहराई के साथ अभिव्यक्ति मिलती है जैसे ः-
ऽ    सॉझ सकारे हॉ-हू की  गॅूजे खेतों में रोग हो,
रैया गावे, दिलरी गावें, गाये मौसम फाग हों।
ऽ    खड़क रही खंजड़ियां हाथों की गदियों पे।
अलगोझा गूॅज रहे मछुओं के नदियों पे ।
ऽ    चरवाहें की बजी बसुरियॉ जंगल गूॅजा रे ।
कवि मनोज ने अपने काव्य में बुदेली लोक संगीत को बड़े आदर्ष से जगह दी है, और उसमें बड़ी विषेशता यह है कि बहुत सहजता और स्वाभाविक तरीके से बानगी देखें ः-
बजी नगड़िया, नाचे गोरी कर मन का सिंगार रे ।
बिंदिया दमकी, नथनी दमकी, ऐरन चमके कान के ।।
फड़के अधर सॉस लहराई, गीत उठे स्वर तान के ।
    यहॉ गोरी के श्रृंगार का बड़ा मनोहारी चित्रण किया है ।
एक उदाहरण और देखें ः-
    मन में उमंग भरे चैता के ढोल बजे ।
    ढपला रमतूला संग बॉसुरिया कूक उठी ।।
    टिमक उठी टिमकी रे, मैया के मंदिर में ।
    मन में उमंग भरे चैता के ढोल बजे ।।
लोक संगीत से भरा उनका मन बसनत के आगमन पर गा उठता है ः-
    बजी ढुलकिया तिक-तिक धिन्ना ।
    नीके बसन्ती आ गये दिना ।।
    इस तरह के चित्रण में कवि ने अपनी भावनाओं को बड़े ही उन्मुक्त रूप से व्यक्त किया है। कवि की अभिव्यक्ति में एक मस्ती हैं उसमें जीवन का संगीत  है।
    हम देखें तो कवि ने बुन्देली ग्रामीण जीवन के बिम्बों को बड़ी सतर्कता से प्रस्तुत किया हैं। उन्हें लगता है, कि चिरैया दूध से भरी जुनई के दाने को बड़ी रूचि से खाती है। उन्हें लगता है कि नगड़िया की थाप पर गोरी मन का श्रृंगार कर नाच उठती है । ऐसे चित्रांकन में कवि ने पूरे के पूरे बुन्देली दृष्य को अपनी सौदर्य चेतना के रंग में रंगकर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर दिया है।
    मनोेज जी ने बुन्देलखण्ड से जुड़ी सौन्दर्यानुभूति को अपने काव्य में बड़ी सूक्ष्मता से उभारा है।  बुन्देली जनपद के गॉव तथा उसके जीवन का समग्र और स्वाभाविक चित्रण उनकी कविताओं में देखने मिलता है। वास्तविकता यह है कि उनके काव्य में ग्रामीण जीवन का केवल बाहरी रूप ही चित्रित नहीं हुआ है बल्कि उसके आन्तरिक तत्व, स्वभाव तथा संस्कृति को भी अभिव्यक्ति प्राप्त हुई है।
संदर्भ ः
1.    हिन्दी साहित्य कोश (भाग-1) पृश्ठ 747 ।
2.    बालकृश्ण भट्ट - हिन्दी प्रदीप अक्टूबर 1986 पृश्ठ 15 ।
3.    अज्ञेय@ साहित्य का परिवेष पृश्ठ @ 33 ।

माधव शुक्ल ‘‘मनोज‘‘ के काव्य पर एक दृष्टि लघु शोध प्रबंध-तीन, उपसंहार-अतुल कुमार श्रीवास्तव-सागर


आधुनिक बुन्देली कविता के सन्दर्भ मैं माधव शुक्ल 'मनोज' के काव्य का अनुशीलन

उपसंहार
माधव शुक्ल ‘मनोज’ ने अपने जीवन में संघष के कई रंग देखे है।
    चाणक्य ने लिखा है ः-
        गुणैरूत्तमतां यति नोच्र्चरासन संस्थितः ।
        प्रासादषिरस्धोऽपि काक कं गरूड़ायते ।।
(चाणक्य नीति दर्पण 16.6)
    अर्थात मनुश्य अपने श्रेश्ठ गुणों द्वारा उत्तम हेाता है, ऊॅचे आसन पर बैठने से नहीं । मनोज जी के सन्दर्भ में चाणक्य का उक्त कथन काफी उपयुक्त प्रतीत होता है। ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में स्थाई उपलब्धियॉ उन्होने बिना किसी साधन के स्वतः ही अर्जित की है।

    काव्य रचना भाव संप्रेशण की एक ऐसी सषक्त विधा है, जिसके माध्यम से कवि अपने मनोभावों को बड़े अच्छे ढंग से व्यक्त कर सकता है। मनोज जी की एक बड़ी विषेशता है, कि उन्होंने अपने लोक को नहीं त्यागा, वे अपनी जड़ों से जुड़े रहें है। हम अपनी परंपरायें, रीति रिवाज, लोक संगीत, घर, परिवार को छोड़ कर जीवन में सफलता तो पा सकते हैं किन्तु वह जीवन सार्थक कहा जाय, इसमें संदेह हैं।
सागर विस्वविद्यालय लायब्रेरी 
    हम देखें तो माधव शुक्ल‘मनोज’ की कवितायें लोक की वंदिष में बंधी हैं। वे 1947 से कवितायें लिख रहे हैं। और अभी भी सृजनरत सक्रिय है। उनका समूचा काव्य सृजन ग्राम्यानुभूति में डूबा हुआ है। गॉवों की पीड़ा उनके सुख-दुख और साहस को उन्होंने बहुत निकट से देखा हे। केवल दृष्य ही नहीं ग्राम जीवन की समूची गतिविधियॉ उनकी कविता में स्थान पा गई है।
    मनोज जी बुन्देली और खड़ी बोली के जन कवि हैं, वे आधुनिक बुन्देली कवियों में लोकप्रिय और अग्रणी है। मध्यप्रदेष साहित्य परिशद्, भोपाल के ‘‘ईसुरी’’ पुरस्कार से सम्मानित कवि मनोज ने, मध्यप्रदेष के सागर जिलें में देहातों में एक आदर्ष शिक्षक की भूमिका भी निभाई और उन्हें भारत के राश्ट्रपति ने आदर्ष षिक्षक और जागरूक कवि के रूप में सम्मानित किया। उनकी लगभग तेरह चैदह पुस्तकें  प्रकाषित हुई है। उन्होंने बुन्देलखड के लेाक नृत्य ‘‘राई’’ पर मोनोग्राफ लिखा। वे विन्यास मासिक पत्रिका का सफल संपादन भी कर चुके हे। मनोज जी ने सत्र 1964 में पंडित जवाहर लाल नेहरू की वसीयत का बुन्देली में काव्यानुवाद भी किया। बंगलादेष के युद्ध के समय ‘‘सोनार बंगलादेष’’ नामक काव्य पुस्तक का संपादन कर गॉवों, कस्बों में कविता यात्रा के माध्यम से राश्ट्रीय एकता यात्रा दल के साथ अनेक रचनात्मक कार्य भी किये हैं ।
    उन्होंने बुदेली में मंचित कालिदास के नाटक ‘‘मालविकाग्निमित्र’’ निर्देषक बाबा कांरत और स्पेन के प्रसिद्ध नाटककार लोर्का के नाटक ‘‘यरमा’’ - निर्देषक विभा मिश्रा के लिये बुदेली  गीत भी लिखे हैं। वे मध्यप्रदेष आदिवासी लोक कला परिशद् भोपाल की कार्यकारिणी सभा के सदस्य और आकाषवाणी छतरपुर आदि साहित्य कला संस्थाओं के सलाहकार ज्यूरी रह चुके है।
    कवि माधव “ाुक्ल मनोज की कविता में गॉवों की पूरी दिनचर्या के दर्षन होते हैं, सुबह-सुबह गोरस की मटकी में मथानी के गीत से लेकर आधी रात को फूलते बेला के फूलों की महक तक ले जाने वाली उनकी कविताओं में गॉवों की वह छोटी सी रामकहानी भी है, जहॉ मेहतन और मसक्कत  की जिंदगी जीते हुए आॅगन में कंगना खनकाती राम दुलैया नाचती हैं। इन सब के साथ वे कीचड़ में बोलते@ नदियों में डोलते@ गॉवों के छपर-छपर, पॉवों की आहट भी सुनते है। इस तरह उनकी कवितायें जीवन के आभावों में भी आनंद का संचार करती है।  विद्वान समीक्षक रामरतन भटनाकर ने मनोज जी की पुस्तक ‘‘ भोर के साथी’’ की भूमिका में लिखते हुए कहा है ‘‘ काव्य रसिकों को मनोज की रचनाओं में खड़ी बोली का खुला स्वर मिलेगा। जो पन्त की ‘‘ग्राम्या’’ से आगे बड़ती हुई हमारी काव्य धारा गॉवों के ओर छोर कहॉ पहुॅच गई है। यह वह अच्छी तरह से जान सकेंगे आज की नयी कविता के दौर में यह लोक से रंगी विधा लोक “ौली की कविता अपनाई जाने लगी है।
    मनोज जी की रचना धर्मिता को रेखांकित करते हुए त्रिलोचन शास्त्री ने कहा है ‘‘ वे बुन्देली के मौलिक कवि है, यह और प्रसन्नता की बात हैं कि वे बुन्देली कविता में आधुनिक हिन्दी के भावों से भिन्न स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित करते हैं। वस्तुतः कविता में शुक्ल की यही वह जगह है, जहॉ उनको अन्तिम रूप से होना है। आधुनिक हिंदी की कविताओं के समकक्ष जहॉ बुन्देली कविता को स्थापित करते है, वहीं अपने जनपद के प्रतिनिधित्व कवि के रूप में उभरते है। प्रयोगषीलता, आधुनिकत भाव बोध नवीन शैली-भाव, जातीय बिम्ब, विधान, और खॉटी बुन्देली भाशा के शब्द संसार ने उन्हें जो पहचान दी है, वह अलग से रेखंाकनीय है। विशयवस्तु की दृश्टि से उनकी कविता में समूचा बुन्देलखण्ड हैं, अपने यथार्थ के साथ। एक गहन लय में पगी ये रचनाए पारम्परिक लोक धुनों से प्रस्थान भी करती है। रागात्मकता के अलावा बुन्देली ठसक का व्यंग और ललित हास्य इन कविताओं में देखते बनता है यथा - ‘‘अपनी धुन’’ में भूले, देखों फुकना से फूले’’
    तेज गति से होने वाले विकास के युग में विकलांग अनुभूति ओर बौद्धिकता पष्चिमी चष्मा पहिने काव्य वृत्ति जब आज साहित्य का आधार बनने का स्वरूप रचती है। तब ऐसे वातावरण में माधव शुक्ल मनोज जैसे अन्वेशी कवि की कवितायें पढ़ना उन्हें सुनना, गुनना अति आवष्यक हो जाता है। उनकी कविताओं ने मूक ग्रामीण जन जीवन को वाणी दी है, उनके सुख-दुख, दीन-हीन विवष स्थितियों परिस्थितियों को गॉवों में रह कर, पगडंडियों पर चल कर जाना समझा । अतः यह कहने में जरा भी अतिष्योक्ति न होगी कि मनोज जी की कवितायें, ग्रामीण जीवन की अनुभूतियों की गीता है। मनोज जी ने काव्य रचना को बुन्देली में वह स्तर दिया हैं जो अनुभूति चेतन कवि ही दे सकता हैं।
    अंत में मै यही कह सकता हॅू कि, ईसुरी, गंगाधर व्यास और ख्यालीराम तो अब नहीं है। किन्तु उनकी परम्परा के जो भाशित बिन्दु “ोश है। और इस परम्परा की कड़ी को कभी विष्लेशित किया गया तो उसमें माधव “ाुक्ल ‘‘मनोज’’ का नाम अवष्य होगा।

Saturday 9 November 2013

माधव शुक्ल ‘‘मनोज‘‘ के काव्य पर एक दृष्टि-एक-लघु शॊध प्रबंध,

 माधव शुक्ल 'मनोज'
 माधव शुक्ल ‘‘मनोज‘‘ के काव्य पर एक दृष्टि
लघु शोध प्रबंध-एक-अतुल कुमार श्रीवास्तव-सागर

आधुनिक बुन्देली कविता के सन्दर्भ मैं माधव शुक्ल 'मनोज' के काव्य का अनुशीलन



माधव शुक्ल ‘‘मनोज’’ बुन्देली और खड़ी बोली के जनप्रिय कवि है। वे 1947 से कविताएं लिख रहे है खड़ी बोली और बुन्देली में फैला इनका रचना काल पचपन वर्शो से भी अधिक का है। उनका समूचा काव्यसृजन ग्राम्यानुभूति में डूबा हुआ है।
   
जीवन के इस तमस में आस्था का दीप जाने वाले कवि मनोज का जन्म 1 अक्टूबर1930 को  हुआ था। ये संघर्शो में पले बड़े इन्होंने जीवन में कई उतार चढ़ाव देखे, मन में चाह होते हुए भी ये उच्च शिक्षा प्राप्त न कर सके और परिस्थितियों से समझौता कर सागर के परकोटा में किराने की एक छोटी सी दुकान चलाने लगे । कभी शाम को मित्रों के साथ रामायण मंडली में बैठते ओर छोटी मोटी तुकबंदी किया करते और इसी तरह मन में कविता के अंकुर फूटे। उनका कण्ठ भी बड़ा सुरीला था, लोग उन्हें अक्सर गायक के रूप में याद करते थे।
  
   एक बार इन्होंने अपनी कुछ पंक्तियां लिखी थी और मित्रों के आग्रह पर ये सागर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के तत्कालीन अध्यक्ष आचार्य नंददुलारे वाजपेयी जी से मिलने गये । उन्होंने इनकी बहुत प्रशंसा की व कहा कि आप में जयशंकर प्रसाद की प्रतिभा दिखती है। फिर इसी तरह इन्हें मित्रों एंव अन्य विद्वानों की प्रशंसा मिली एवं इनकी काव्य यात्रा प्रारंभ हुयी। आपका प्रारंभिक कविता संग्रह ‘‘सिकता कण’’ है। यह संग्रह 1952 में प्रकाशित हुआ।

    इनका जन्म व लालन पालन एक कृषक परिवार में होने के कारण उनके ग्रामीण संस्कार गॉवों का सजग चित्रण करते हैं। वही दूसरी ओर मनोज जी बताते है कि जब वह शासकीय प्राथमिक शाला में शिक्षक बने तो गॉव में ज्यादा रहना पड़ और ग्रामीण परिवेश ने इनके मन में गहरी छाप छोडी इसलिए इनकी काव्यधारा में ग्रामीण जीवन की अनुभूतियॉ केन्द्र में है। ग्रामीण जीवन को उन्होंने कल्पना की आंख से नहीं देखा वरन् उसी में डूब कर उनकी अनुभूति ने अभिव्यक्ति पायी है।


    बुन्देली में मनोज जी के समकालीन कई उम्दा कवि हुए किन्तु लोक जीवन को काव्य में उतारने में इन्होंने पूर्ण सफलता प्राप्त की है। उनके समय के कवि अपने घरानों संस्कारों, मान्यताओं एंव सीमाओं के घरे में बैठे रहे, वही मनोज जी ने काव्य के परिवर्तनशील युग की नयी काव्यधारा से सम्बंध स्थापित कर अपनी जागरूकता का प्रमाण दिया। और इसी कारण इनका कृतित्व सर्वाधिक विकसनशील और गतिशील रहा है। माधव शुक्ल ‘‘मनोज‘‘ के अभी तक निम्न कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं -
माधव शुक्ल मनोज 

1.    सिकतागण (1952)
2.    भोर के साथी (1956)
3.    माटी के बोल (1960)
4.    एक नदी कण्ठी सी (1956)
5.    नीला बिरछा (1991)
6.    धुनकी रूई पेट पौआ (1992)
7.    जिन्दगी चंदन बोली है (1993)
8.    जब रास्ता चैराहा पहन लेता है (1997)
9.    मै तुम सब (2000)
10.  एक लॅगोटी बारौ (2001)

माधव शुक्ल ‘‘मनोज‘‘ ने चौका ग्राम मे शिक्षक रहते हुए अपनी काव्य यात्रा प्रारम्भ की इनका पहला काव्य संग्रह ‘‘सिकताकण’’ खड़ी बोली में रचा गया। किन्तु ग्रामीण परिवेश में रहने के कारण इनका मन बुन्देली की तरफ गया और फिर उन्होंने बुन्देली में अद्भुत काव्यधारा की रचना की। ग्रामीण वातावरण काव्य के प्रति मोह उत्पन्न करने में समर्थ रहा । इतना ही क्यों, उनके आस-पास फैली हुई प्राकृतिक छटा भी उनके हृदय में कविता के भाव जगाने में पर्याप्त सफल हुई। उन्हें कविता की प्रेरणा ही प्रकृति से मिली। इस संबंध में उनकी स्वीकारोक्ति भी है कि कविता के लिए ग्राम का परिवेश खेत- खलिहानों ने प्रेरणा का काम किया ।
माधव शुक्ल मनोज का दूसरा काव्य संग्रह 1956 में प्रकाशित हुआ ‘‘भोर के साथी’’ इस संग्रह में रचनाओं की संख्या अधिक नहीं है पर भाषा शैली एंव छन्द विधान के क्षेत्र में नये प्रयोग किये हैं -
    चरवाहे की बजी बंसुरिया जंगल गूंजा रे ।
    गौओ की टोली में जैसे कान्हा गाय रे ।
    यमुना जैसी जंगल मे से नदिया ढुलक चली ।
    हरे पहाड़ों में से रस की धारा छलक चली ।
( भोर के साथी )

‘‘ भोर के साथी’ की भूमि में डॉ रामरतन भटनाकर ने लिखा है कि जनपदीय काव्य लोक गीतों का ऋणी एवं उत्तराधिकारी हैं। उसमें साहित्य चेतना की कमी नहीं है, परन्तु नागरिक संस्कारों से वह अछूता हैं और साहित्यिक परम्परा का निर्वाह उसमें नहीं है। 1936 के बाद काव्य क्षेत्र में ये दो धारायें साथ-साथ चलती हैं। इस संदर्भ में कवि मनोज की यह रचना निःसन्देह अभिनन्दनीय है, इस छोटी सी रचना से भी कवि का प्रगतिशील और प्रयोग रूप स्पश्ट हो जाता है। और उसकी शक्ति का पर्याप्त परिचय होता हैं। कवि अपने नागरिक संस्कारों के प्रति संदेहशील है । वह भाषा शैली, गीत, स्वर, छन्द, विशय और अभिव्यंजना सभी क्षेत्रों सम्बंधी सभी मान्यताओं को त्याग कर संभावनाओं के विशाल सागर में विचरण करता हैं। इस प्रकार उसने अपनी भाव भूमि का विस्तार किया है और नयी पीढ़ी के नये सपनों को लोकवाणी दी है।1

कवि ने गांवों के चित्रों को गॉवों की भाषा में ही सवारा है। उसकी शब्दावली ग्रामीणों की बोलचाल की भाषा है और स्वर लहरी भी प्रेशणीय तथा लोकप्रिय है। गांव के जीवन तत्व और उनके सामाजिक संस्कार कहीं कहीं बड़े मधुर रूपक बॉधते है ‘‘हॅसते ज्वर के कुंज’’ और ‘‘भादों रसिया’’ कविताओं में प्रकृति को मानवीय संस्कारों में बॉध दिया हैं-

प्रीत ज्वार से करें बाजरा, कुटकी ब्याह रचाती हैं।
कचरियॉ का ढोल बजा के,
    बनरी मूग सुनाती हैं।
पास खडा बिरवा बबूल का,
    नये बराती टेर रहा।
उरदा पहुनाई करने को,
    नये संगाती हेर रहा।
ज्वार कुंज के तले बैठ कर
    मंडप नींद रही गोरी ।।
अतुल श्रीवास्तव - सागर 
( हॅसे ज्वार के कुंज, भोर के साथी )

इसी तरह ‘‘ भादो रसिया’’ में भादों का चित्रण करते हुए कवि गाता है-
भादों का है हरा दुपट्टा,
    सिर पर पगिया बादल की ।
आॅखे जूही चमेली जैसी,
    कोरे काली काजल की
सूरज इन्द्र धनुश की,
    रेखा चमक-दमक बिजली जैसी
सॉस नशीली देह सुहानी,
    गेहॅू की कजली जैसी ।
गॉव की पगडण्डी, चरवाहे, सॉझ-सुबह चॉदनी और धूप ये सभी कवि को संवेदना से भर देती है।

म.प्र. के प्रतिनिधि साहित्यकार में टी.दिनकर ने लिखा है कि आम जन की जिन्दगी किन किन परिस्थितियों से गुजरती है इसका चित्रण मानवता के उज्जवल भविष्य के साथ मनोज ने किया हैं। फिर मनोज के मन का कवि इस संदर्भ में पुरानी शब्द योजनाओं को दुहराने वाली काव्य गति से ऊबकर एक छोटे से गॉव में चला जाता हैं, और लोक गीतों की धुनों में झूमता हुआ अपनी भावनाओं को और भी सुन्दर बना देता हैं।2

इस प्रकार कवि मनोज का प्रगतिशील रूप स्पष्ट हो जाता हैं। वे सभी मान्यताओं को त्यागकर संभावनाओं के विशाल संसार में विचरण करता हुआ अपनी भाव भूमिका का विस्तार करते हैं। और नयी पीढ़ी के नये सपनों को लोक वाणी देते हैं। कवि ने ग्रामों को अत्यंत निकट से देखा हैं। इसलिए उसके लोकरंग में रंगे हुए ग्रामीण परिस्थितियों के चित्र सच्चाई और ईमानदारी के साथ ग्राम की आत्मा के संपर्क में मुखरित हो उठते है जैसे-

हरे भरे से गांव में ।
    सूरज सोना सा बरसाये ।।
धरती बिरछा पात हो,
    हॅसे दूधिया चॉद चॉदनियॉ,
गोरी-गोरी रात हो,
    हरियाली की गोद चूमती
नदिया बहे बहाव में।
    हरे भरे से गॉव में ।
( भोर के साथी )

माधव शुक्ल मनोज का तीसरा कवि संग्रह ‘‘माटी के बोल’’ प्रकाषित हुआ इस समय तक मनोज जी एक अच्छे युवा कवि के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे। माटी के बोल की कविताओं से कवि के प्रकृति प्रेम के अतिरिक्त जिस अन्य विशेष गुणों की ओर ध्यान केन्द्रित होता हैं, वह है दृढ आस्था और लोक गीतों से कवि का तादात्म्य।
‘‘माटी के बोल’’ की भूमिका में ब्रज भूशण सिंह ‘‘आदर्श’’ ने मनोज जी के इन गुणों की विस्तृत व्याख्या की है। कहा गया है कि मनोज जी आस्था के कवि हैं। यर्थाथ को उन्होंने विस्मृत नहीं किया है कन्तु नये जागरण के प्रति उनकी दृढ आस्था ने प्रगतिवादी कवि की निषेधात्मक धारणा का आवरण दूर रखा हैं। कवि को दुखों से ग्रसित कृशकों और मजदूरों के आत्म गौरव और विश्वास पर अटूट श्रद्धा हैं, और वह उन्हें खंडित नहीं करना चाहता है।3
    तुम मेड़ मड़ैया के राजा,
        तुम दुपहर सॉझ सकारे हो।
    तुम ही हो माटी के सोना,
        तुम पानी हो बदरारे हो ।
    तुम सोन चिरैया बिरछा के,
        कहो फूले फलै समैया
    चतुम चन्दा के भैया,
        तुम सूरज के भैया
( माटी के बोल )
    यहॉ चंदा और सूरज के साथ भ्रातत्व स्थापित कर मनोज जी ने किसान की कोमलता और कठोरता को किस खूबी के साथ संजोया है, यह मानवोचित गुण है।
    निद्र्वन्द जी ने लिखा है कि उन्होंने मानवस्वरूप की जिस देवोपम रूप की कल्पना की हैं या जिसे खेतों ओर खलिहानों में देखा है, उसे अत्यन्त कुषलता से अंकित किया हैं। मनुश्य की कुरूपता का अंकन प्रवृति के चितेरे से संभव नहीं क्योंकि उसकी दृश्टि में पतझड़ का सौन्दर्य बसन्त जी से कम नहीं भले ही कुछ विद्वान इसे पलायन की ही वृति माने । मनोज जी के लिये कविता कसक, विलास या तान मात्र नहीं क्योंकि उसकी दृष्टि में साहित्य का अर्थ हित के साथ हैं। यही कारण है कि वह  इसी सीमा के भीतर ही प्रगतिवादी और प्रयोगी दोनों हैं।
    मोरे अंगना में कंगना खनके रे ।
        मोरी नाचे राम दुलैया रे ।।
    मोरी मेड़ मड़ैया हरियानी ।
        मोरी ताल तलैया लहरानी ।।
    मोरे चंदा सूरज से खेतों में ।
        मोरी दमके नैन तरैया रे ।।
    मोरी नाचै राम दुलैया रे ।
(नीला बिरछा, 65 )

    कवि ने खेत खलिहानों से अधिक निकटता स्थापित की है और उनकी तनमयता ने चित्रों को मनमोहन रंग दिये हैं। मनोज जी के बोल सशक्त है इसका कारण है कि वे ग्रामीण पाठशाला में अध्यापक और ग्रामवासी रहे हैं। उनकी काव्य की विशेषता ग्रामीण जीवन एवं प्रकृति की विस्तृत छविया हैं ः-
    चक्की के पाटों का राग उठा घरर-घरर ।
    माटी के घर में जगा धुंधले सुबह का पहर ।
    चक्की की सुरधुन सुन रोंथ रही गैया ।
    चक्की चलाय गोरी गाये झूम रैया ।

    मनोज जी ने बुदेल खंडी लोक गीतों से अपना संबंध स्थापित कर कविता के माध्यम से गीतात्मक भाव धारा को लिरिकल बनाया है। जैसे-
    ऊॅची टगर मेरा गॉव, नदिया नीचै बहे ।

    मनोज जी के प्रकृति चित्रण में धरती के सपने और माटी की गन्ध का आधार है, कल्पना से उसमें और मनोहरता आयी हैं ‘-
    गेहॅू धन,
    खेतों झूमे, फगुनवा ।
    घूटन-घूटन हो
    खेतो में आगई
    गेहॅू की बालें
    नाचे बसन्ती बयार ।
    फूलो मन
    धरती को महके अॅगनवा
    खेतों में झूमे फगुनवा ।।

    धूप भरे फागुनी दिन को कवि अनन्त संभावना वाला मानता हैं, बसन्ती बहार को शब्दों में बॉधता है, बसंती बहार रास्ता बुहारती है और खेतों में गेहॅू के रूप में फागुन ने अपनी दस्तक दी हैं।
    मिल जुर गा रई चार जनी ।
    माटी में तुम हीरा की कनी ।।
    ले रओ हिलोरे ई तन में जिया ।
    बैलो खों हॉक रये मोरे पिया ।
    देखूॅ मै उन खों बनी ठनी ।
    माटी में तुम हीरा की कनी ।।
(नीला बिरछा, 69)

    ग्रामीण नारी की तुलना कवि हीरा से करता है। जब किसान बैलों को खेतों में हॉकता हैं तब उसका वह रूप देखकर कवि का भी मन पुलकित हो उठा हैं।
    चलों चलों खेतों में आ गओं कुवॉर ।
    साहुन निकर गओ रे,
    भादों निकर गओ
    बोले चिरैया
    कूरा ने रेवे पुआॅर ।
    चलो-चलें खेतों में आ गओ कुवॉंर ।।
( नीला बिरछा )

    यहॉ प्रकृति का स्वतंत्र आकर्षक चित्रण हैं जिसमें कुवॉंर के महीने की झॉकी भी रूपायित हुई है।
    चले अईयों हो,
    अंगना के फूल खिला जइयों
    ऊपर है बादर नीचे हैं धरती
    परती के भाग जगा जइयो ।
    चले अइयों हो,
    अंगना के फूल खिला जइयों ।
(नीला बिरछा, 48 )

    प्रकृति की छटा में मग्न कवि का मन सूरज का आहवान करता हैं। उनका मानना है। कि सूरज पूरब से आयेगा और धरती में रंग भर देगा। इस तरह मनोज जी के काव्य में सृजन विकास को देखा जा सकता हैं ।
    अपनी सोन चिरैया ।
    अपनी भोर तरैया ।।
    खेत किनारे एक मेड़ पे ।
    अपनी राम मडै़या ।।
    चहचहात हुइये भुनसारो ।
    दुलराहें पुरबैया ।।
    अपनी सोन चिरैया ।
( नीला विरछा, 120)

    मनोज जी के काव्य में ग्रामीण अंचल का नैसर्गिक सौदर्य चित्रित हुआ है। यह वह काव्य है जिसमें छोटी सी सोन चिरैया माधुर्य और सौदर्य की अक्षय राशि बन गयी हैं।
    कवि का जुडाव प्रारम्भ से ही गॉवों की और रहा है, और उनकी तन्मयता ने उसके चित्रों को मनमोहक रंग दिये है। भाषा की जनपदीय झलकियॉ ग्राम की आत्मा के संपर्क में ले आती है।
    छिप गई बादर की नन्ही तरैया ।
    झूम उठी पुरवा ले तरू की बलैया
    चहक उठी नाच उठी डाल पे चिरैया ।
    सूरज खों चूम उठी किरणों की बैयां ।
( भोर के साथी)

    कवि सोचता है कि क्षितिज में दूर तक फैली एक के ऊपर एक उठी ये किरणों की श्रृंखला, मदमस्त चलती हवा और खेतों में दिखती हरितिमा किसी भी मनुष्य को अपने महान सम्मोहन में डुबोकर कुछ समय के लिए भुला सकती हैं।
    ‘‘मनोज जी’’ ग्रामीण चित्रों के कुशल चितेरे हैं, उनका काव्य प्रकृति की मधुर चित्रशाला हैं। उसमें ग्रामीण संस्कृति का सूक्ष्म और गंभीर चित्रण मिलता हैं। उन्होंने ग्रामीण अंचल के कोमल स्वरूप के प्रति अनुराग प्रदर्शित करते हुए उसका आकर्षक और सजीव चित्र प्रस्तुत किया हैं उनके काव्य को कहीं से भी पलटिए ग्रामीण परिवेश की मोहक और उदात्त छवियॉ मुस्कराती मिलेगी जैस-
    मनचंगी गंगा नहा लई पिया ।
    जंगल में मंगल मना लय पिया ।।
    बैठी हैं माटी पे ऊॅची कगरियॉ ।
    फैली है मेड़ों पे पैनी बबुरियॉ ।।
    कॉटो पे मंदिर बना लय पिया ।
    जंगल में मंगल मना लय पिया ।।
( नीला बिरछा, 45 )

    कवि ने मेहनतकश किसान के श्रम की कीमत को समझा है उनका मन माटी के प्राकृतिक गुणों से युक्त हे। उनके अंदर वह सिनग्धता है, स्नेह हैं जिससे वह सहज रूप से सबकों अपने अंक में समेट लेते है। और ऐसा होने पर ही खेतों, खलिहानों, चैपालों झोपड़ियों और ग्रामीण अंचल की रागात्मक छवियों को स्वरूप दे सके हैं ।
यथा-
    छाती में उठे हिलोर,
    इमली पे बोले परेवा ।
    खेतों में कंचन हैं,
    फसलों का नंदन है।
    मेड़ क मडै़या पर,
    आशा का चंदन हैं ।
    गाती है अलबेली मोर,
    इमली पे बोले परेवा ।
(नीला बिरछा, 27)

    मनोज जी ने जिसका अहसास किया वही उन्होंने अपने काव्य में उतारा हैं, यहॉ झरते हुए कनेर के फूल आतुरता और अधीरता के साथ पिया से मिलन को उकसाते हैं । कवि की गॉव की गोरी विवशता से पिया की बाट जोह रही है।
जैसे-
    कब से देखुं बाट पिया की
        लौट अबहुं नहि आये रे।
    झर गई चंपा, झर गई बेला ।
        झर गये फूल कनेरा रे  ।
    राह देखती, बाट जोहती,
        देखूॅ कौन डगरिया रे ।
    फरर-फरर पुरवैया  बैरिन,
        खींचे रोज चुनरिया रे ।
    झर गई चंपा, झर गई बेला ।
        झर गये फूल कनेरा रे ।
( नीला बिरछा, 79)

    मानवीय संबंधों की प्रगाढ़ता जिस रचनाकार में होती हैं उसकी रचना उतनी ही दीर्घजीवी और प्राणवान होती हैं । कवि पुकारता है थके पॉवों को वह बताता हैं आम की गहरी छॉव गॉव की ठंडी हवा और कुएॅ का शीतल पानी-
    ठॉव-ठॉव बैठ चलो,
        पॉव-पॉव की पुकार ।
    दुखयारे बहुत खड़े खेतों के आस-पास ।
    तुमखों लो टेर रही, माटी से दौड़ सॉस ।
    नगरों के भैया ओ, अमवा का पेड़ हैं।
    ठण्डी सी पुरवेया, हरी-हरी मेड़ हैं।
    गॉव-गॉव ठहर चलो छॉव-छॉव की पुकार ।
(नीला बिरछा, 36 )

    आगे चल कर मनोज जी ने संघर्षशील वातावरण में डूब कर जिन प्रगतिशील भावनाओं को अपनाया हैं, वे प्रगतिवादी युग की सराहनीय कड़ी हैं। उनके इस काव्य में एक वर्ग एक समाज, एक समुदाय का पूर्ण प्रतिनिधित्व करता है। इन कविताओं में स्वाभाविकता सरलता मजदूर वर्ग की अनुगामी संघंर्षशीलता, चेतना, निम्न वर्ग के प्रति सहानुभूति, युग का यर्थाथ एवं कल्पनाओं, भावनाओं, विचारों का सुन्दर समन्वय देखने को मिलता है।4 यहॉ मजदूरों जमीन से जुड़े लोगों की आवाज कवि के अंतस से आती प्रतीत होती है जैसे -
    आई हिलोर फटें छाती ।
    दुख दूना रे ! दुख दूना रे !
    इन अखियन से, ।
        टप-टप टपकी ।।
    बिन बोले असुवन, ।
        की बुंदिया ।।
    इन खेतों में जब दिन डूबा ।
        भर आई साजन की सुधियॉ  ।।
    कोई न मीत हुआ अब तक ।
        थोड़े से जीवन की देहिरा  ।।
    झकझूना रे ! झकझूना रे !
( नीला बिरछा, 37 )

    कवि मानवीय स्नेह के आधार पर कविता में आम आदमी का चित्रण करता हे। जब तक रचनाकार आम आदमी की संवेदनाओं को नही समझता तब तक उसे जीवन का यथार्थ अनुभव और मानवीय चेतना की वास्तविकता का गहरा बोध नहंी होता। मनोज जी ने देहाती आदमी के आभावों, तनावों और उत्तेजनाओं का सीधा साक्षात्कार किया है और धरती उनके लिये सब कुछ है इसलिए धरती माता की वह आराधना करते है-
    मार कुदाली धरती में, ।
        मार कुदाली परती में ।।
    जय-जय धरती मैया की ।
        खेतों की, खलिहानों की ।।
    मेड़ों की, मैदानों की ।
        सूरज, अंबर बादल की ।।
    मौसम की, पुरवैया की ।
    जय-जय धरती मैया की !
(माटी के बोल )

    दरअसल जिस कवि की अनुभूति जितनी तीव्र एवं सघन होगी उतनी ही तीव्र उसकी अभिव्यक्ति की छटपटाहट और बैचेनी भी होगी। ऐसा काव्य वैचारिक धरातल पर बहुत सर्तक, जागरूक और समय के अनुकूल होगा, उसमें गहराई सच्चाई और विस्तार होगा।
    जो अनुभूत नहीं वह साहित्य भी नहीं है। रचना रचनाकार की भट्टी में पिघलकर निकलती है। इसलिए उसमें अनुभूति की चमक होती है, ओर वह नई भी होती है। जो कुछ अनुभूति का विषय नहीं  बन सका, वह साहित्य की सीमा के अन्तर्गत नहीं  आता क्योंकि अनुभूति में ही वह शक्ति निहित है कि मनुष्य के मर्म का स्पर्श करें और उसकी संवेदन का विस्तार करे जो साहित्य का स्वीकृत धर्म है।5
    ‘‘मनोज’’ जी को अपनी कविता और आंसुओं से गहरा लगाव है। वह पूरी गंभीरता और तन्मयता से इन गीतों को गाना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें विश्वास है कही न कही किसी न किसी को ये गीत प्रभावित करेंगे, उनके आंसू निष्प्रभाव नहीं है-
    टूटी डगाल रे ।
        रमुआ के बाग की ।।
    मुरझाई ऐसी जैसे बिछड़ा हो संग ।
    पत्तों में रोता है, बिरछा का रंग ।।
    पीर जाने कितनी है, रमुआ के भाग की ।
    टूटी डगाल रे, रमुआ के बाग की ।।

    इसके अलावा मनोज जी ने कुछ बुदेली छक्के भी लिखे जो उनकी ईमानदारी और साहसिकता के प्रमाण हैं। अनुभवों पर आधारित साधारण सी कविताएं  भी मन को छू जाती है। इन कविताओं के माध्यम से उन्होंने कृत्रिमता और व्यवस्था के खोखले पन को उजागर किया है जैसे ः-
    बा सरकार तुमाई आय ।
        जा सरकार हमाई आय ।।
    छीना-झपटी ।
        चोर बजारी ।।
    सरसा जैसी ।
        है मों बाय ।।
    दल के दल ।
        दल दल में फॅस गये ।।
    लपकी गाय ।
    गुलेंदों खाय ।।
    जा सरकार हमाई आय ।
(नीला  बिरछा, 127 )

    मनोज जी ने लोक जीवन के साथ-साथ इसी लोक में जो दूसरा वर्ग है, जो अत्याचार करने में कुशल हैं, शोषण करने में शीर्ष पर हैं। अपने वैभव के मद में अन्धा हो कर मनुष्य को मनुष्य नहीं समझता इस वर्ग को भी कवि ने सत्य रूप में प्रस्तुत किया है-
    अपनी धुन में भूले।
        देखो फुकना से फूले ।।
    महल अटारी ।
        डार कें डोरी ।
    झूल रहे है झूले ।।
        बना रही है आज गरीबी ।
    सड़कों पे घर घूले ।।
        देखों फुकना से फूले ।
(नीला विरछा)
    हम विचार करे तो पॉयगे कि मनोज जी मात्र भावनाओं के कवि नहीं है, वे तो लोक से जुड़े हुए कवि है। उनकी लोक दृष्टि के घेरे में समूचा लोक जीवन अपनी पूरी वास्तविकता और गुण-दोषों के आया है। यही कारण हैं कि कवि एक ऐसे रूप में हमारे सामने आता है, जो भावनाओं के संसार में नहीं बहता बल्कि सच का सामना करता है, और दूसरे व्यक्तियों को भी देखता हैं। इस प्रकार के देखने में मनोज जी ने निश्चित ही उस व्यक्ति को अधिक सूक्ष्मता से देखा हैं जो खूब मेहनत करता है और बदले में कुछ खास नहीं पाता जैसे ः-
    तो खों, मो खों, ओ खों ।
        केत-केत मो सूखें  ।।
    भुनसारें से राशन लेवे ।
        दिन डूबे लो खूंतों ।।
    चिल्ला चिल्ला सो गओं हुइये ।
        घर में मोड़ा भूखों ।।
    केत केत मो सूखों ।

इसी प्रकार ः-

    अपनो मतलब सॉटो ।
        सब की पत्ती काटों ।।
    मिल जुर के छाती में छेदों ।
        फूल बता कें काटों ।।
    सब की पत्ती काटों ।
( नीला बिरछा )

    मनोज जी का एक और महत्वपूर्ण काव्य संग्रह है ‘‘धुन की रूई पे पौआ’’ इसमें उनकी नयी शैली में बुदेली कवितायें संग्रहीत है। इन कविताओं में शैलीगत नवीनता सरल शब्द योजना, गहरी अभिव्यक्ति और मंत्र मुग्ध करने वाली चित्रोपयता मनोज जी को नयी पहचान देती है।6 प्रायः बुन्देली कवि या तो ईसुरी की फाग शैली  अपनाते है या पद्माकर की श्रृंगारपरक शैली किन्तु मनोज जी ने इनसे हटकर नवगीत शैली को बुन्देली में स्थापित किया है-
    सूखे ककरी को जऊआ ।
        छाती में उगे अकौआ ।।
    सिर के ऊपर आज विपत को ।
        बोलो कारौ कौआ ।।
    ऐसो लगे समय ने धर दओं ।
        धुनकी रूई पे पौआ ।।

    आज हमारा समाज जिस भ्रष्टता की ओर बढ़ रहा है। शोषण और स्वार्थ को ही प्रजातंत्र का मूल्य मान लिया गया हैं। मनोज जी ने राजनीति, उसमें घुटता आदमी, जीवन की सच्चाई, इन्सान की लाचारी उसकी नियति और आजादी की विडम्बना पर सीधा प्रहार किया है-
    ओर-छोर ने कहूँ अंत हैं ।
        अपनो प्यारों लोकतंत्र है ।।
    तें भी राजा, मै भी राजा।
        एक चका सो गोल यंत्र हैं ।।
    झाड़ा- फॅूकी अंट संट सब ।
        जादूगर देखों स्वतंत्र है ।।
    अपनो प्यारों लोकतंत्र है ।
( धुन की रूई पे पौआ,, 26)

    मनोज जी के काव्य में चित्रित परिवेष राजनीति और इससे संबंधित अनेक समस्याओं को भी मूलित करता है। हमारे यहॉ जो कुर्सी की राजनीति की परम्परा है कवि उस पर चोट करता है ः-
    जीत जात के बैठे ऊपर ।
        बांध लये कुर्सी से गोड़ें ।।
    अपनोई नगर गॉव सब भूले ।
        नाम बड़े है दर्शन थोड़े ।।
( धुनकी रूई पे पौआ, 14)

    मनोज जी की कविताएं  स्वस्थ सामाजिक जीवन से जुड़ी है। जब कभी उन्हें सामाजिक जीवन में विकृतियॉ नजर आती है, तो वे न केवल दुःखी होते हैं, अपितु एक स्वस्थ समाज की कल्पना से भरते हुए विकृतियों के पोषकों पर व्यंगात्मक प्रहार करते ह-
    मटका कें नैना, लचका कें कम्मर ।
        कैसो  दिखा रये कमाल पिया ।।
    देश कौ हो रओ है, इकदम कबाड़ो ।
        छोबी पछाड़ को बन रओ अखाड़ो ।।
    सब कोई अब अपने मन के है राजा ।
        आदर्शो की गिर रई दिवाल पिया ।।
( धुन की रूई पे पौआ, 44)

    कवि की कुछ कविताएं  ऐसी हैं जिनमें कवि ने समाज के दुख दैन्य और विषमताओं के चित्र खीचें है जो यथार्थ की भूमिकाओं पर अवतरित है। मनोज जी का जीवन दर्शन बहुत प्रभावित करने वाला है। आत्मा जगत, शरीर, प्राण, नियंता की असलियत से भी वे बेखबर नहीं है। देखें-
    बुरे काम से ऐं कौ तो ।
        ऐब और गुन लेखौ तो ।।
    झार-झूर के अपने मन कौ ।
        कचरा बाहर फैकों तो ।।
    ऐना टॉगों तुम्हारे घर में ।
        अपनी सूरत देखों तों ।।
(धुन की रूई पे पौआ, 35)

    मनोज जी का काव्य आम आदमी से जुड़ा हुआ है। उन्होंने जो मध्यमवर्गीय परिस्थितियों का चित्रण किया है वह अद्भुत है। उनकी कविता आम व्यक्ति की कविता है ः-
        रात की कुठरिया में।
            सो रओ हैं भुनसारौ ।।
        चिकटे से उन्ना ।
            चरर-मरर खटिया ।।
        मच्छर भगावे खौं।
            गुरसी में धधकत है ।।
        कंडी कौ धुआं  ।
            माटी के तेल की ।।
        भभकत है डिबिया ।
            करिया सी लौ में ।।
        लिपटौ है उजियारौ ।
            रात की कुठरिया मैं ।।
        सो रओ है - भुनसारौ ।।
( धुन की रूई पे पौआ, 16 )

    आधुनिक कविता की विशेष प्रवृत्ति के रूप में राष्ट्रीय काव्य धारा का विशेष महत्व है। इसी तरह मनोज जी की कविताओं में भी देशभक्ति और राष्ट्रीय भावों का गहरा प्रसार दिखाई देता हैं ः-
        मिल जुर के अपनी मेहनत से ।
            गॉधी को देश सजैयों, मोरे लाल ।।
        गॉधी जी ने सौंप दओ है ।
            बिरछा जैसो रोप दओ हैं ।।
        फरे और फूले जो निसदिन ।
            खून सींच हरियईयो मेरे लाल ।।
        गॉधी को देश सजैयो । मोरे लाल ।
( नीला बिरछा )

    उन्होंने ‘‘नेहरू की वसीयत’’ कविता में नेहरू जी के भावों को बुदेली में व्यक्त किया है ः-
        हाथ जोड के शीश नवाऊं  ।
            देश विदेश जहान खों ।।
        वसियत लिख के धर दई हमनें ।
            जनता और किसान खों ।।
( नीला बिरछा, 96)

    इस तरह से माधव शुक्ल मनोज के कविता संसार में हमें अनेक विविधताएं देखने को मिलती है, लगता है कविता का प्रत्येक पद लोक संगीत का उल्लासित अंग है। इतनी सहजता, ग्राम जीवन से इतनी निकटता बुन्देली कविता में कम ही देखने को मिलती है। मनोज जी का काव्य व्यक्तित्व बहुआयामी है। लोक भाषा में जी रहे मनुष्य की त्रासदी को जिन कोणों से वे उजागर करते हैं। इस संबंध में डॉ. कान्ति कुमार जैन के शब्दों को उद्धृत करना चाहॅूगा ‘‘मनोज ने बुन्देली कविता को एक नई विधा अभिव्यक्ति देकर बुन्देली कविता का प्रतिनिधित्व किया है। नई पीढ़ी उनकी इस मौलिक शैली, अभिव्यक्ति और नये प्रयोग- प्रतीकों से अवश्य प्रभावित होगी।’’
संदर्भ-
1.    भोर के साथी की भूमिका - डॉ रामरतन भटनागर।
2.    म.प्र. के प्रतिनिधि साहित्यकार - टी दिनकर 10.12.61 नई दुनिया ।
3.    माटी के बोल की भूमिका- ब्रज भूशण सिंह ‘‘आदर्श’’
4.    माटी के बोल की भूमिका- ब्रज भूशण सिंह ‘‘आदर्श’’
5.    नये साहित्य का तर्क शास्त्र विश्वनाथ प्रसाद तिवारी पृ.14
6.    नवभारत - भोपाल - बटुक चतुर्वेदी ।

Friday 8 November 2013

माधव शुक्ल मनोज का सागर में सम्मान


माधव शुक्ल मनोज का सागर में सम्मान सागर में सम्मान

सागर कमिश्नर द्वारा सम्मान
संगीत संस्था द्वारा सम्मान
सागर संस्था द्वारा सम्मान
अनूप जलौटा द्वारा सम्मान

अनूप जलौटा द्वारा सम्मान

 संगीत संस्था द्वारा सम्मान
  सागर कमिश्नर द्वारा सम्मान

सागर संस्था द्वारा सम्मान

छत्रसाल सम्मान 1989-माधव शुक्ल 'मनोज'

 छत्रसाल सम्मान

बुन्देलखण्ड परिषद् भोपाल

1989





बुन्देली कवि श्री माधव शुक्ल 'मनोज' के साहित्यक योगदान के लिए साहित्य सागर की ओर से

 बुन्देली कवि श्री  माधव शुक्ल 'मनोज' के साहित्यक योगदान
के लिए साहित्य सागर की ओर से

                                                    अभिनंदन पत्र                      दिनांक 7.10.1990
शशि सी शीतलता है तुममें, दिनकर जैसा घोष।
बुन्देली साहित्य मनीषी, माधव शुक्ल मनोज।।
सतत् साधना के प्रतीक तुम, कर्मठता की आन।
सागर को है भेंट विधि की साहित्यिक पहचान।।
बुन्देली स्वर दूर-दूर तक हैं तुमने पहुंचाये।
नई विधायें नये गीत के नये बोल बिखराये।।
मावस की रातों में जन-जब काले बादल छाये।
हर्षित करने जन मन तुमने गन्ना से दिन गाये।।
जीवन किया समर्पित सारा साहित्यिक धारा को।
नहीं किया स्वीकार कभी भी अंध स्वार्थ कारा को।।
राष्ट्र भावना से प्रेरित हो लिया एकता नारा।।
देश प्रेम की लहर जगाना ही उद्देश्य तुम्हारा।।
अनचाहे रोड़े पथ में तो आते है औ आयें।
किन्तु समय के दांव पेंच से कभी न तुम धबराये।।
सीधी सच्ची राह तुम्हें हरदम आती आई है।
इसीलिए तो कलम तुम्हें गंगा तट ले आई है।।
तुमसे खिली दिशायें पवन में महका शीतल चंदन।
करो बंधु स्वीकार तुम्हारा शत्-शत् है अभिनंदन।।

महासचिव                                         अध्यक्ष
टी. आर. त्रिपाठी रूद्र                       निर्मल चन्द्र निर्मल

अभिनन्दन पत्र 

अभिनन्दन माधव शुक्ल मनोज 
अभिनन्दन माधव शुक्ल मनोज


प्रणवानंद पुरस्कार 1999-माधव शुक्ल 'मनोज'

प्रणवानंद पुरस्कार 1999-माधव शुक्ल 'मनोज'
माधव शुक्ल मनोज को प्रणवानंद पुरस्कार
बुन्देलखंड साहित्य अकादमी छतरपुर द्वारा  स्वामी प्रणवानंद सरस्वती हिन्दी साहित्य पुरस्कार इस वर्ष कविवर माधव शुक्ल मनोज की कृति 'टूटे हुए लोगों के नगर में' देने का निर्णय हुआ।
अकादमी 14 वर्षों से बुन्देलखण्ड की संस्कृति साहित्य और कला को प्रकाश में लाने का कार्य कर रही है।
प्रणवानंद पुरस्कार-1999 छतरपुर

'टूटे हुए लोगों के नगर में



अक्षर आदित्य सम्मान 2000-माधव शुक्ल 'मनोज'

अक्षर आदित्य सम्मान 2000-माधव शुक्ल 'मनोज'
मध्यप्रदेश लेखक संघ
साहित्यकार सम्मान