Sunday 14 April 2013

जब रास्ता चौराहा पहन लेता है -1997, समीक्षा

जब रास्ता चौराहा पहन लेता है चॊराहा 


 जब रास्ता चौराहा पहन लेता है (कविता संग्रह)

साक्षात्कार अप्रैल 1996 अंक 220, पेज न. 104 समीक्षक पूर्णचंद्र रथ


वरिष्ठ कवि माधव शुक्ल ‘ मनोज ’ की कविताओं, गीतों में अदभुत कला संयोजन और लोक का आकर्षण है। शायद यही कारण है कि कि उनकी अभिव्यक्ति की पारदर्शिता से प्रेरणा पाकर कई सहृदय हो सके हैं। एक कवि के लिए यह बड़ी उपलब्धि है।

उनकी कविताएं आम आदमी की आम फहम भाषा में आपसे बतियाती नजर आती है। जैसे सब कुछ उनकी जिन्दगी में, व्यक्तित्व में रचा-बसा है। बनावट नहीं है। कहने का आशय-भवानी प्रसाद मिश्र की पंक्तियों के अनुसार जैसा तू सोचता है, वैसा तू लिख और अपने से बड़ा दिख’ इसी नाते वे सबके लिए सोचते हैं, खासकर उन लोगों के लिए तो बहुत ज्यादा-जिनके साथ वे खेत-खलिहान में रहे, नदी-नालों में नहाए, टेकरियां चढ़ी, पढ़ा-पढ़ाया, उन मजदूरों, बीड़ी कामगारों की चिन्ता भी वे करते हैं जिन्हे सड़क कूटते, बीड़ी बनाते-जिन्दगी को धूल धुआं बनाते उन्होंने देखा है।

दरअसल उनकी अभिव्यक्ति की सादगी, सरलता, निश्छलता और सरिता की छल-छल बहती काव्य भाषा के लिए सटीक नाम दे पाना संभव नहीं है। क्योंकि मनोज जी का काव्य व्यक्तित्व इसी घेरे का नहीं है-वे इस खांचे में भी समाते नहीं हैं। बल्कि इसके पीछे कुछ और है। जैसे, उनके अग्रज पीढ़ी के कवि त्रिलोचन जी में हैं और वह लोक-लोक संस्पर्श। शायद इसलिए मनोज जी का काव्य वयक्तित्व बहुआयामी है। बुंदेली के शीर्ष कवि हैं वे। लोक भाषा में आज जी रहे मनुष्य के त्रासदी को जिन कोणें से वे उजागर करते हैं वह उनका अपना प्रयोग है। बार-बार अपने बनाए खांचे से बाहर आना उनकी रचनात्मक फितरत से पगी उनकी चित्रकार सी चेतस तूलिका हर धरातल पर अपना जीवन जगत के बारीक रेशों के साथ नजर आती है।

‘‘ जब रास्ता...चौराहा पहन लेता है’’ उनकी रचनात्मकता अभिव्यक्ति का नया पड़ाव है। अपने इस संकलन में भी उन्होंने एक नये काव्य रूप से पाठकों का परिचय कराने का योग जुटाया है। वह है बिना तुकों की चैपादियों का। बे तुक होते हुए भी जो बेतुके नहीं हैं। बल्कि संग्रह की संकलित रचनाएं, काव्य अनुभव की कसावट का वह संयोजन प्रस्तुत करते हैं कि कहन का स्तर गज़ल सरीखा-काव्यार्थ का विस्तृत फलक पूरे मर्म के साथ संवोदित हो जाता है।

याद आता है ऐसे प्रयोग द्धिवेदी युग में अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘‘ हरिऔध’’ जी ने किए थे। ‘‘ चोखे चैपदे ’’ और ‘‘ चुभते चैपदे ’’ शीर्षक से। लेकिन हरिऔध के ये संकलन तुकतान से लैस थे। जबकि मनोज जी के इस संकलन में चैपदियां तुक रहित हैं। लधु-गुरू की मात्राओं का बखेड़ा भी नहीं है। है तो केवल लय जो किसी भी कविता के लिए जरूरी है। यानी कहन के अंदाज में नये पर ज़ज्बातों के प्रकटीकरण के लिहाज से पूरी तरह-कवितामय-

‘ सुबह का चेहरा मुंह धो रहा
 जिन्दगी कुछ खा-पी लेती है
 छांव-छप्पर धरती का ठिकाना है-
किरायेदार का घर बस ही जाता है।’ 

संकलन की इस सौंवी चैपदी में लय के साथ-साथ चेहरा, और घ्ज्ञर का संबंध धो, खा, ठिकाना और बस जाता शब्दों से जोड़ते मनोज जहां शब्द ध्वनियाँ  और अर्थों में एका संयोजित कर रहे हैं वहीं पक्तियों के विन्यास से पूरा मर्म संम्प्रषित कर पाने का काव्य कौशल भी अर्जित कर लेते हैं। इस व्याकरणिक व्याख्या के बगैर कविता एक नये अर्थ के साथ हमारे सामने खुलता है कि मनुष्य, किराये से ही सही, मतलब विपरीत परिस्थितियों में घर बसा लेता है और इस संतोष के साथ कि छाया, छत, घरती से वह वंचित नहीं है, जिन्दगी काट लेता है।

उपरोक्त चार पंक्तियों में मनोज आज जी रहे मनुष्य की लाचारी को ही नहीं, उसके गर्व, धरती के साथ उनके जुड़ाव तथा प्रकृति से मिल रही ताजगी को भी व्यक्त करने की कौशलता दिखा देते हैं मतलब मनुष्य को उसके बाहरी रूप के साथ चित्रित करना चूंकि कविता नहीं है इसलिए मनोज जैसे सिद्ध रचनाकार -ऐसे ही चित्रण के माध्यम से भाव का वह समागम रेखांकित कर जाते हैं कि उस व्यक्ति विशेष का अंतर्मन गहराई से उद्धाटित हो जाता है। व्यक्ति का एक नया रूप सामने आता है।

प्रकृति, पर्यावरण और परिवेश के शब्दांकन के जरिए  मनोज ने कई चेहरे उकेरे हैं-

आदमी होते हुए भी तुम आदमियत में नहीं हो। 
तुम पहाड़ी-गांवड़ी हो-जूता नहीं पांवड़ी हो
सभ्याता के नाम पर तुम इत्र फोहा से भले हो
दूध के लोटे में तुम पानी के औधे गिलास हो
अथवा’ उपदेशक जो जितना बोलता, वह भ्रष्ट है उतना

 पोथी में जो भी लिखा पढ़ता है-अपने लहजे में बीबी रो रही उसकी-लड़का गालियां देता/महानता उसके माथे पर चंदन से लिखी फिर भी ; या फिर यह भी एक चेहरा या तेवर आदमी का-

रेत में कश्ती लिए हो-देखते आकाश को
नदी कैसे आएगी तुम तक बिना बरसात के
अभी तक बादलों की रागिनी सीखी नहीं तुमने
हर बूंद के गीत में ओले का तरन्नुम है।’
क्हने का मतलब मनुष्य को आम आदमी की तरह से अनेक कोणों देखते-पकड़ते, मनोज ने उसे उसके कर्म और परिवेश के आधार पर ही अपनी इन 190 चैपदियों में सक्षमता से उकेरने का काम संभव किया है। इसलिए हर चैपदी के आदमी और उनके मन अलग दिखाई देते हैं।

वस्तुतः मनोज की इन चैपदियों में एक ऐसे मध्यमवर्गीय शॊषित मनुष्य का चेहरा झांकता है जिसे सादगी पसंद है, दुनिया में चल रहे पाखंड से जो अनजान नहीं हैं, संगठित न होने पर या न हो पाने के “ाड़यंत्र का जो शिकार है, पर जीवन जीने का जबरदस्त होसला जिसमें है। वह चेहरा आज के सामान्य या कहें 90 प्रतिशत भारतीयों का है। वह कहता भी है-

‘भाषण देना नहीं आता मुझे है
गूंगा हूं-गूंगी बात लिखना जानता हूं
दुदभि तुम तो बजाना जानते हो-
झोपड़ झुग्गियों में मंजीरे बजाना क्या बुरा है।’

संत कवि कबीर जैसी साधुता और अक्खड़पन की भाषा, इस सग्रह का प्राण है। कबीर चूंकि फक्कड़ भी रहे इसलिए किसी एक ठौर बैठ मंजीरा बजाना उन्हें रास नहीं आया होगा। अब चूंकि 600 साल में  कई कबीर मठ, प्रगति की दौड़ में देखा-देखी स्थापित हो गए हैं-सो मनोज का गूंगा मनुष्य झोपड़-झुग्गी में मंजीरा न बजाए तो क्या करे।

समीक्षक:पूर्णचंद्र रथ

जब रास्ता चौराहा  पहन लेता है
माधव शुक्ल मनोज

साहित्य सागर संस्था सागर
प्रथम संस्करण 1997
मूल्य ः 25  रूपये



माधव शुक्ल 'मनोज' के काव्य संकलन " जब रास्ता चौराहा  पहिन लेता है " 
लोकार्पण समारोह एवं कवि सम्मेलन

सागर में 31 अगस्त को सांस्कृतिक साहित्यिक स्था हिन्दू-उर्दू मजलिस द्वारा पं. मोतीलाल नेहरू म्यु. स्कूल कटरा बाजार सागर में कला साहित्य लोक गायन के तीन दिवसीय र्काक्रम के अन्तर्गत प्रथम दिवस ईसुरी सम्मान एवं राष्ट्रपति पुरस्कृत बुन्देली कवि तथा कलाचर्या के संपादक कवि श्री माधव शुक्ल 'मनोज' के नवीन काव्य संकलन "जब रास्ता चौराहा पहिन लेता है" का लोकार्पण प्रख्यात कवि समीक्षक आचार्य श्री त्रिलोचन शास्त्री की अध्यक्षता में तथा कुलपति श्री शिवकुमार श्रीवास्तव के करकमलों से सम्पन्न हुआ। मुख्य अतिथि श्री महेश कुमार मलैया विशेष रूप से उपस्थित थे। इस अवसर पर कवि श्री माधव शुक्ल 'मनोज' द्वारा अपनी काव्य यात्रा के हर पढ़ाव से चुनी हुई प्रतिनिधि कविताओं को प्रस्तुत किया गया।


तत्पश्चात श्री शिवकुमार श्रीवास्तव ने उनके काव्य संकलन " जब रास्ता चौराहा पहिन लेता है " का लोकापर्ण प्रख्याता कवि-समीक्षक श्री त्रिलोचन शास्त्री के सानिघ्य में किया।


इस अवसर पर संबोधित करते हुए कुलपति श्री शिवकुमार श्रीवास्तव ने कहा कि यह मेरे लिए कठिन कार्य है कि मैं श्री मनोज की काव्य यात्रा के संदर्भ में जब इनका रास्ता चैराहा पहिन ले कुछ कह पाना कठिन बात है जब एक रास्ता आता है तथा दूसरा कहीं से आता है तो एक बिन्दु पर मिलते हैं और दो रास्ते और जुड़ जाने से वह चौराहा हो जाता है, चैराहे को खड़ा कर दें तो वह सलीब हो जाता है। मुझे ऐसा लगता है कि कवि उस सलीब पर टंगा है, रचना यात्रा बड़ी कठिन है, कवि को सच्चाईयां प्रस्तुत करने लिए हाथों-पावों में कीलें ठुकवाकर उस सलीब पर लटकना पड़ता है और यह बार-बार होता है एक चैराहे से काम नहीं चलता तभी श्रेष्ठ कविता जन्म लेती है।


कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे प्रख्यात कवि, समीक्षक आचार्य त्रिलोचल शास्त्री ने 'मनोज' को सागर का प्रतिनिधि कवि मानते हुए आशीर्वाद दिया और कहा कि मनोज किसी से प्रभावित हुए बिना कविता में इतनी गहराई से बात करते है जो दूसरे व्यक्ति भी नहीं कर पाते।

समाज सेवी महेश मलैया ने हर क्षेत्र में व्याप्त सच्चाई के संकट पर चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा कि 'मनोज' की कविताओं में इस संकट से लड़ने की क्षमता है।

साहित्यकार रमेशदत्त दुबे ने कहा कि माधव शुक्ल 'मनोज' की कविताए घोर यथार्थ में प्रजनन की खोजती कविताए हैं जो निम्न मध्यवर्गीय समाज को बड़ी पैनी नजर से झांकती हैं


चिन्तनशील कवि ऋषभ समैया ने संचालन करते हुए 'मनोज' के काव्य शिल्प को बिन्दु-बिन्दु रेखांकित किया एवं " जब रास्ता चौराहा पहिन लेता है " पुस्तक के बारे में पूर्णचन्द रथ का प्रेषित समीछा वक्तव्य का पाठन किया।

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