Sunday 14 April 2013

धुनकी रूई पै पौवा-1992- समीक्षा


धुनकी रूई पै पौवा 

 बुन्देली में गोता लगाते माधव शुक्ल ‘ मनोज ’ नवभारत भोपाल 19 अगस्त 92 समीक्षक-बटुक चतुर्वेदी


माधव शुक्ल मनोज का नया काव्य संग्रह धुनकी रूई पै पौवा में उनकी 20 बुंदेली कवितायें संग्रहित हैं। इन कविताओं की शैलीगत नवीनता, सपाट बयानी, सरल शब्द योजना, गहरी भावाभिव्यक्ति और मंत्र मुग्ध करने वाली चित्रोत्पयता मनोज को नई पहचान देती है।

इसमें मनोज ने नवगीत शैली को बुंदेली में स्थापित किया है जो नये कवियों को प्रेरणा देगी।
धुनकी रूई पै पौवा
मनोज केवल गांवों के गलियारों में ही भटकता कवि नहीं है। उसे समय की हर धड़कन का पता है। वह एक सतर्क कवि है। समाज में फैली विसंगतियों को भी वह उजागर करता है तथा सामाजिक राजनैतिक प्रदूषणों पर भी उंगली उठाता है।

मनोज का जीवन दर्शन आम भारतीय जीवन दर्शन से भिन्न नहीं है। आत्मा, जगत, शरीर, प्राण नियंता की असलियत से भी कवि बेखबर नहीं है। मनोज का यह काव्य संगह उनको एक सशक्त बुंदेली रचनाकार सिद्ध करने में समर्थ है

डा. कान्ति कुमार जैन के शब्द यहां उद्ग्रत करना चाहूंगा, मनोज के बारे में- ‘‘ उन्होंने बुन्देली कविता को एक नई विधा अभिव्यक्ति देकर बुंदेली कविता का प्रतिनिधित्व किया है। नई पीढ़ी उनकी इस शैली, भावाभिव्यक्ति और नये प्रयोग-प्रतीकों से अवश्य प्रभावित होगी।


समीक्षक-बटुक चतुर्वेदी

साहित्य सागर संस्था, सागर


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