मै तुम सुब |
मैं तुम सब-1991 कविता संग्रह, समीक्षा
हिन्दी कविता अनेक रूढ़ियों और वैचारिक बोझिलता से मुक्त हुई है। वह आन्दोलनों शिविर से बाहर आकर यथार्थ के ठोस धरातल पर खड़ी हुई है। उसने अपने उत्स को पहचाना है।मनोज ने दकियानुसी घिसे पिटे विचारों को छोड-अभिव्यक्तियों की भूमिका बदली है। जिसका श्रेय उनकी परिवर्तित कवि चेतना को जाता है। ‘‘ मैं तुम सब’’ इसी एक नये मोड़ की कविता है।
‘‘ मैं तुम सब’’ की कवितायें पढ़ने से लगता है कि मनोज के कवि में वैचारिक दृढ़ता और नयी राह सूझ आई है। रचनात्मकता के प्रति उनका रुख और व्यवहार भी बदला है। ईश्वर-भगवान नाम को नकारते हुए और परम प्रिय परमात्मा को स्वीकार करते हुए मनोज ने आज के तेजस्वी ‘‘मैं’’ की गरिमा, उसकी चेतना को आज की मानवी जिन्दगी में अपनी गहरी दृष्टि से देखा और अनुभव किया है। तभी तो वे परमात्मा के अंश में -धड़कते ‘‘मैं’’ को समूची सृष्टि में होने का संकेत देते हुए कर्मशील शक्तिशाली ‘‘मैं’ को विस्तार से उजागर करते हैं।
माधव शुक्ल मनोज |
कविता संग्रह से
मैं तुम सब
माधव शुक्ल मनोज
प्रथम संस्करण
मूल्य-110@-
प्रकाशक-रामकृष्ण प्रकाशन, विदिशा
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