Sunday 14 April 2013

जिन्दगी चंदन बोती है-1992,समीक्षा

जिन्दगी चंदन बोती है


जिन्दगी चंदन बोती है-1992

जीवन संघर्ष की कविताएं

जिन्दगी चंदन बोती है...समीक्षकःउत्पल बनर्जी



मनोज की कविताओं में त्वरित काव्य हस्तक्षेप की क्षमता प्रत्येक बार हो आवश्यक नहीं किन्तु हमारे दैनिक जीवन की छोटी-छोटी घटनाएं तज्जनित अनुभूतियां इनके काव्य की विषय-वस्तु बन कविता को जीवन के और निकट ला देती है। इस संग्रह की कविताएं वर्तमान सामाजिक संदर्भों से गहरे स्तर तक जुड़ी हैं। पारिवेशिक विवंचनाओं के जुए को कंधे पर ढोते मध्यमवर्ग के संघर्ष का दस्तावेज है मनोज की कविता। शिल्प और कथा के स्तर पर मनोज की कविताओं में ताजगी अवश्य है साथ ही वहां एक शांति का अनुभव होता है जो संकेत करता है कि मनोज की रचनाओं का तेवर बहुत कड़ा व आक्रमक नहीं है।

कई बार आधुनिकतावाद से पीड़ित कविगण गहन अनुभूति न होने के बावजूद महज बौद्धिकता प्रदर्शन कविता करने का प्रयास करते पाए गए। ऐसे में बौद्धिक शब्दों का अभाव सताता है। फिर कविता, कविता न होकर हठ योग की मुद्रा का रूप धारण कर लेती है। किन्तु जब संपूर्ण जीवन ही कविता बन जाए तो कवि शब्दों की तलाश में भटकता नहीं। इस संग्रह में हम पाते हैं कि कि दैनिक जीवन में प्रयोग किये जाने वाले शब्दों को कविता में कवि ने पिरोया। और ये मामूली शब्द अद्भूत बिंबों का सृजन करते हैं।

मेरी थकान, मेरा बोझ 
माधव शुक्ल मनोज 
दोनों हाफते तेजी से चल रहे हैं  
जहां टिमटिमाती दियों वाली  
मेरी सांझ है 
जहां एक सुमरन की कड़ी 
एक सुरीली टेक,सांवरी थकान है।

जैसा कि पहले भी उल्लेख किया जा चुका है कि मनोज की कविताए व्यंग्य को प्रक्षेपित तो करती हैं किन्तु उनका रूख बहुत आक्रमक व तीखा नहीं होता। ये कविताएं मुक्तिबोध या धूमिल जैसी तिलमिलाहट पैदा नहीं करती। त्रास उत्पन्न नहीं करती। व्यंग्य में तल्खी तो है किन्तु साथ ही चुटीलापन भी है जो मानस में त्रास नहीं उत्पन्न होने देता। लेकिन अपनी बात को पूरी ताकत के साथ कहता है‘

आपाधापी में गुज़र गया दिन
ग़रीब, गरीब की तरह रह गया। 
झोपड़-झुग्गी में पीकर शराब मस्त हो गया 
एक संत टोप लगाकर साहब हो गया’।

आज के बदलते परिदृश्य में प्रत्येक क्षेत्र में सम्बंधों में अजीब औपचारिकता का समावेश हो गया है। इसके पीछे निश्चित रूप से अहंकार प्रमुख कारण है। इससे सामाजिक के आचार-व्यवहार में निश्छलता के बजाय व्यर्थ की क्लिष्टता तथा दोहरापन आ गया है। मनोज इस सामाजिक सम्बंधों की गहरी पड़ताल करते हैं। इस कृत्रिमता का दुख इस कवि को भी है-

डोर स्वयं हाथों की उलझाली अब
बैठे बिठाये
गांठ खोलता हूं मैं
हंसना है फैशन, गुलाब तोड़ता हूं मैं।

इस संग्रह की कविताओं में एक और खास बात दिखाई देती है कि अधिकांश कविताएं भावप्रवण हैं ( जीवन के स्पंदन से कटी नहीं ) गीतों में जिस प्रकार आत्मतत्व की प्रधानता होती है और जो गीत की पहचान भी बनती है। मनोज की इन कविताओं में आत्मतत्व प्रकारान्त से समाविष्ट हो गया है। ऐसे में प्रायः प्रकृति का आलम्बन लेकर वे स्वयं को व्यक्त करते हैं। किन्तु स्वयं में नदी के द्वीप नहीं हो जाते। कविताओं में जीवन-समर में विपदाओं से जूझते हुए आई विश्रांत और पीड़ा का रंचमात्र भी प्रकाशन नहीं है। वेदना यदि है तो वह विश्वपीड़ज्ञ के रूप में है। जिन्दगी चंदन बोती है प्रभुति कविता में उनका कबीराना अंदाज झलकता है-

तुझे गड़ा है हरा कांटा
फिर भी तू मुस्काती है
दुख-दर्दों के बेटों को तू
लोरी गाती है
रोना कोई देख न ले
चुपके से रोती है
हाय जिन्दगी
तू पहाड़ पर चंदन बोती है। 

यहां आधुनिक युगबोध का निर्वाह करते हुए आधुनिकतावाद से बचाव भी है।
मनोज की लिखी अन्य कविआओं की स्मृति के आधार पर जिस स्तर की कविताओं की अपेक्षा मनोज से थी इस संग्रह की कुछेक ही कविताएं उनके अनुरूप् जान पड़ती हैं। कई कविताएं जरा भी डिस्टर्ब नहीं करतीं और ये बात रचना की सीमा को संकेतित करती हैं। फिर भी मनोज की इन कविताओं में लफफाजी नहीं है। प्रकृति के माध्यम से अपनी बात कहते हुए मनोज कल्पना की वायवीयता में नहीं उलझे। उन्हें बराबर इस बात का ध्यान रहा कि कविताएं किसके लिए लिखी जा रहीं हैं। पदमैत्री, शब्द मैत्री, पीड़ित मानवता के संघर्ष, उनके राग-विराग को वाणी देती कविताओं में व्यवस्था से टक्कर लेता एक स्वर भी सुनाई देता है।

समीक्षकः उत्पल बनर्जी


आकलन में प्रकाशित नई कृतियों की चर्चा का प्रयास ...







काश! जिन्दगी चन्दन ही बोती

कविता, जीवन की समीक्षात्मक अभिव्यक्ति है जो मनुष्य के हृदय को स्वार्थ संबंधों की संकुचित भावना से परे लोक सामान्य भाव-भूमि पर ले जाती है। जहां मानस हृदय में जगत के मार्मिक स्वरूप का परिचय और शुद्व अनुभूति का संचार होता है मनुष्य ने आज अपने आसपास ऐसा सधन और जटिल वातावरण निर्मित कर लिया है कि वह शेष सृष्टि से संबंध के स्तर पर कटता जा रहा है। यही कारण है कि मनुष्य की मनुष्यता खोने का भय बना हुआ है। ऐसी परिस्थिति में कविता ही मनुष्य के साथ सफर कर रही है। आज कविता सहज स्वाभाविक रूप से सामने है। उसमें कहीं किसी आडंम्बर का आग्रह नहीं है। कवित अपनी बात जैसे कहना चाहता है वैसी प्रस्तुत कर रहा है। विचार, भाषा में सहमें से नहीं लगते ,न ही दर्द की कसक महसूस करने में समय लगता है, कविता तो सीधे हृदय से हृदय का संवाद कर रही है।

पचास कविताओं का संग्रह ‘जिन्दगी चंदन बोती है’ हाथ में हैं। माधव शुक्ल मनोज का यह अतुकांत कविताओं का संग्रह है। संग्रह की कविताओं में जीवन की सच्चाई आम आदमी की पीड़ा, वर्तमान में छटपटाते इंसान की त्रासदी सामने आती है। ऐसा नहीं है कि कविता संग्रह त्रासदी से ही भरा हो, उसमें वर्तमान से जूझती जिन्दगी अपने भविष्य के सुनहरे सपने संजोये, आशा और विश्वास लिये पहाड़ पर जाकर चंदन बोना चाहती है जिससे उसकी महक पवन के साथ पूरे वातावरण में सुवासित करे और धुटन रूपी दुर्गन्ध का अंत हो

हाय जिंदगी
तू पहाड़ पर चंदन बोती है।
तुझे गढ़ा है गहरा कांटा
फिर भी मुस्काती है।
दुःख,दर्दों के बेटों को तू
लोरी गाती है।
रोना कोई देख न ले
चुपके से रोती है।
हाय, जिन्दगी तू पहाड़ पर चंदन बोती है।

कविता में वर्तमान की मार से न उठते आदमी को अभिव्यक्त किया गया है। आदमी उठने की काशिश तो करता है पर फिर गिर जाता है इन पंक्तियों में इस कविता का मर्म है-

घुटनों पर जिंदगी
दूनर हो जाती है।
बोझ से लदा हुआ
आदमी जब झुकता है
गिरकर जब आदमी जीने को उठता है।

कविताओं में प्रकृति के व्यापारों पर मानव भावना का आरोपण किया गया है। प्रकृति का काव्य व्यापार संग्रह की कविता में भरे हैं। इस संग्रह की भाषा सामान्य पाठक की समझ के घेरे में आती है, प्रतीक नये एवं स्पष्ट हैं। इन कविताओं में कविता का वह प्रयास सफल रहा, जो नई कविता के संबंध में डॉ. जगदीश गुप्त इलाबाद पत्रिका के दूसरे अंक में लिखा था‘ नया कवि दर्द को संवारने की अपेक्षा वस्तु तत्व को व्यवस्थित करने, उसके रूप को उभारने और अनुभूति के मूल ढ़ांचे को सशक्त बनाने का विशेष प्रयत्न करता है। कुछ नये प्रतीकों के प्रयोग भी हैं। बेलाडोना की पट्टी की तरह, ‘ फासी के फंदे की तरह, कैंसर की तरह जख्मी, रेत का बनता घरौंदा, मोम सा पिघल गया, रेत का समुन्दर, कागज के शहर में आदि।

दर्द से चुना गया दर्द, अनकही प्रार्थनायें, नागफनी के देश में, भूले से शहर में, काम करती हुई प्रस्तुति, बोझ कहां तक हल्का होगा, कविताओं में लेखक अपनी बात अभिव्यक्ति करने में बहुत सहज नजर आता है। कुछ कविताओं को छोड़कर शष कवितायें स्तरीय एवं अभिव्यक्ति के स्तर पर पूर्ण और स्पष्ट हैं उनमें नई कविताओं की भूल-भुलैया नहीं है। पाठक की समझ में सरलता से आ जाती है। अतुकांत कविताओं के बाद भी कविताओं में लयात्मकता है।

नई कविता की भीड़ में यह संग्रह खोने की स्थिति में नहीं है न ही माधव शुक्ल मनोज उस भीड़ के बीच के कवि हैं। उनकी नई काव्य शैली में एक पहचान का यह संग्रह पड़ाव है। पुस्तक पठनीय है।

समीक्षक-अजय तिवारी
पुस्तक-जिन्दगी चंदन बोती है
प्रकाशक-साहित्य सागर संस्था सागर,
मूल्य 15@रूपये
पृष्ठ 64
6 सितम्बर 92 रविवार,भास्कर,भोपाल

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