Sunday 14 April 2013

नीला बिरछा-1991, कविताएं

 नीला बिरछा


 कवि माधव शुक्ल की चुनी हुई कविताएं


नीला बिरछा एक काव्य संग्रह है  पिछले चालीस वर्षों की लिखी गई कविताओं में से लगभग डेढ़ सौ चुनी हुई कविताएं प्रकाशित की गई हैं, जिनमें बुंदेलखंड़ी, खड़ी बोली के सुमधुर गीत और कुछ आधुनिक शैली की कविताएं शामिल हैं।


 
नीला बिरछा 



1 मामुलिया

देश के काजें बांध कें फैंटा सज कें चल दो मामुलिया
मामुलिया तोरे आ गये लिबौआ ढुड़क चलो मोरी मामुलिया।

मामुलिया तोरो गांव हिमालय जहां सें आये लिबौआ।
रनभेरी बज उठी लराई कौ तोरो आव बुलौआ।
सजग करो। घर-घर के बीरन दश की प्यारी मामुलिया।
उमड़-घुमड़ कें बनकें बिजुरिया दमक चलो मोरी मामुलिया।


2 झर गई चम्पा झर गई बेला
कब सें देखू बाट पिया की लौट अबहु नहिं आये रे
झर गई चंपा, झर गई बेला, झर गये फूल कनेरा रे।
राह देखती, बाट जोहती
माधव शुक्ल मनोज-नीला बिरछा
देखू कौन डगरिया रे।
फरर-फरर पुरवैया बैरिन
खींचे रोज चुनरिया रे।

पोरा गिनगिन तडपूं तुम बिन
सूनी सेज सिजरिया रे

नहीं सुहावे पनघट कुईया
भरी न जाय गगरिया रे।
कटे न काटे कटतीं रतिया
दूभर हो गई बिंदिया रे।


3 हीरा बीनें कीरा

हीरा बीनें कीरा मुकुन्दी बीनें बेर
झुरझुरी को काटों लग गओ-
स्ब बगर गये बेर

कैसो आ गओ, अरे जमानो
हीरा हो गये कीरा।
मणि माला में आज मुकुन्दी
हो गये मिरचा-जीरा।
स्वारथ की धूनी पे जा कें
हो गए सब बमभोला
महनत को सब आज पसीना
हो रओ कोकाकोला।


4 बेला फूले आधी रात


खटपट सब बंद हुई, सूनसन गलियां।
गुमसुम है कांटों में, आशा की कलियां
पुरबा की लोरियां, सुगन्ध भरी थपकी।
अंखियन में धीरे से निंदिया ले मंहकी।
सुधबुघ सब भूल गई रतियों में देहिरा-
धरती की सेजों में सपनों में अटकी बात।
बेला फूले आधी रात।

धीरे से डूब गई चंदा की चांदनी।
फीकी सी बिखरी है तारों की रोशनी
गोरी सी बेला की दूध भरी पांखुरी।
जीवन में जीने की फूंक रही बांसुरी।
सिरहाने दियला रख, जाग रही घड़कन-
करवट ले हाथ की बजाती है चुटकी रात।
बेला फूले आधी रात।

दूर अभी पूरब में भोर का सितारा।
नदिया का घाट और चुप है किनारा।
नाले किनारे है टीटई का पहरा।
अम्बर का धरती पर अंधियारा गहरा।
चिड़ियों का मीठा सा नीड़ों में बंद गीत-
स्वर साधे बैठा है, मन में गीतों का प्रात।
बेला फूले आधी रात...


5 मन में उमंग भरे चैता के ढ़ोल बजे

मन में उमंग भरे चैता के ढ़ोल बजे।
ढ़पला-रमतूला संग बांसुरियां कूक उठी
पीलेे से मधुबन में ‘ााखायें पीक उठी।
मीठी सुगन्ध भरे महुआ के झौर झरे।
अमवा की अमियों में बैशाखी गीत भरे।
छोटे से गांव में भुनसारे, दिन डूबे-
खेतों खलियानों में गूेहूं के साज सजे
मन में उमंग भरे चैता के ढोल बजे ।

ऊमर की बात नयी, ‘ाहतूती बोल नये।
बेरी के मुरचन में मीठा रस घोल गये।
भिलमा की आंखों में टेसू का रंग भरा।
काठ के कठौता में सतुआ का स्वाद घुरा
घी चुपड़ी गांकर में दुपहर की भूख बुझी-
माटी के ढ़िमलों पर जीवन के गीत गुंजे।
मन में उमंग भरे चैता के ढ़ोल बजे।

इमली की फलियों खनकीं पक कुक करके।
फल निकले पीपल के पतझर में उठ करके।
ऐसे ही गांवन के जीवन में रस छलका।
फसलों की रानी, जब करती है मन हलका।
टिमक उठी टिमकी रे, मैया के मंदिर में-
थोड़ी सी मस्ती में सबके दुख-दर्द लजे।
मन में उमंग भरे चैता के ढोल बजे।


 वह छोटा सा गांव

वह छोटा सा गांव है

नदिया के उस पार बसा रे
वह छोटा-सा गांव है,
जहां-तहां टूटे छप्पर है
माटी की दीवार है।

जांता चक्की ओखल मूसल
सीके टंगे मियार है,
चिथड़ों से वह लदी अरगनी-
बेड़ा भीतर द्वार है।

हड़िया कुठिया और कठौता
रस्सी ओंगन चाक हैं
कंडा लकड़ी भरा मचेरा-
पौरों में अंधियार है।

खुटियों पर लटके हल बक्खर
फूटे बर्तन, खाट हैं,
हंसिया खुरपी गाड़ी-बैलों-
से पूरित घरबार है।

छुई से पुत द्वार के खम्बे
झुकी-झुकी दालान है
घर की एक पुतरिया स ीवह
घूंघट डाले नार है।

पिछवाडे़ बाड़ी गौशाला
अगल-बगल गलयार हैं
आंगन में पीपल का बिरछा-
परिजन पहरेदार हैं।

नंग-धुरग बच्चों के वे
तिल्ली वाले पेट हैं
सूखी सी रोटी से जिनको-
मिलता रहा दुलार है।

गांव के भईया भोले-भाले
खेतों के सिरताज हैं,
जिनका घिरा हुआ जंगल में
छोटा सा संसार है।



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