Sunday 14 April 2013

टूटे हुए लोगों के नगर में -1992 कविताएं


टूटे हुए लोगों के नगर में 

टूटे हुए लोगों के नगर में -1992


कविताएं

1 चिल्लाता है जनमन..चिल्लाता है जनमन

हरि गुमसुम है, आसमान में,
चिल्लाता है जनमन
भेद आदमी ने बोया है
बटवारा है मन का
स्वार्थ सिद्धियां उगती आती
अनाचार हर दिन का
हुई भावना गन्दी/नाली गंध उड़ी जहरीली-
फंसा हुआ है कीड़ों जैसा किल्लाता है जनमन
हरि गुमसुम है आसमान में, चिल्लाता है जनमन।

महलों में इन्सान बड़ा हो
खाता लड्डू-पूड़ी
झोपड़ियों में पड़ी गरीबी
तप चढ़ी है-जूड़ी
मरे देश या मानवता भी अपने सुख के खातिर-
तिरस्कार से नीचे लेटा कुन्नाता है जनमन।
हरि गुमसुम है आसमान में, चिल्लाता है जनमन।।

सेवा का है मूल्य धृणा से
कैसी अद्भुत लीला।
असहायों के सिर के ऊपर
गढ़ा हुआ है कीला।
सभा-भाषणों के द्धारा आदर्श बघारा जाता-
शाला की बजती घंटी सा झन्नाता है-जनमन।
माधव शुक्ल मनोज 
हरि गुमसुम है आसमान में, चिल्लाता है जनमन।।


2  इबारत आदमी की

इबारत आदमी की

जीने का सवाल हल करते-करते
जिन्दगी का उत्तर गलत हो जाता है
गुजर-बसर का सूत्र
वर्तमान का गुणा-भाग
भविष्य का जोड़-बाकी
एक बिन्दु पर रह जाता है
निराशायें आदमी को खरीद लेती हैं
आदमी बिना भाव के बिक जाता है।

सवालों के ढेर के ढेर
नये-नये माप-तौल
मंहगाई की नयी परिभाषा-
गेहूं और पेट्रोल।

किलो और मीटर में
पानी और आग का सवाल
सवाल इबारत में बंध कर
किसी वृक्ष के ऊपर बैठ जाता है।

हाय रे, सवाल के साथ-साथ
अपने हाथों के पोरा गिनता हुआ आदमी
वृक्ष के नीचे
पक कर टपक जाता है।
उसका पूरा समय
एक कोने में
लाठी की तरह टिक जाता है।



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