Sunday 14 April 2013

नीला बिरछा 1991 समीक्षा

ग्राम्यानुभूति में डूबा नीला बिरछा

नीला बिरछा 
नीला बिरछा एक काव्य संग्रह है जो पिछले दिनों मध्यप्रदेश के
अत्यन्त लोकप्रिय बुंदेली कवि माधव शुक्ल मनोज की षष्टिपूति पर प्रकाशित हुआ है। इस संकलन में उनकी पिछले चालीस वर्षों की लिखी गई कविताओं में से लगभग डेढ़ सौ चुनी हुई कविताएं प्रकाशित की गई हैं, जिनमें बुंदेलखंड़ी, खड़ी बोली के सुमधुर गीत और कुछ आधुनिक शैली की कविताएं शामिल हैं।

कवि मनोज 1947 से कविताएं लिख रहे हैं। एक शिक्षक के रूप में उनका आधिकांश जीवन सागर जिले के देहातों में बीता है। इस नाते उन्हें गांवों की पीड़ा, उनके सुख-दुखऔर साहस को निकट से देखने का मौका मिला। उनका समूचा काव्यलेखन ग्राम्यानुभूति में डूबा हुआ है। गांव की भोर से लेकर उसकी पूरी दुपहर, सांझ और उनके अंतर के मौन में कवि मनोज गहराई तक डूबे हैं। उनकी कविता में भोर इस तरह होती है।
नाजुक सी छोरी बुहार चली आंगन।
गडुआ में दूध दुहे घर की सुहागन।
गौरस की मटकी में गाये मथानी।
गांवों के जीवन की भोली कहानी।

माधव शुक्ल मनोज 

ये कविताएं भारतीय गांव की दिनचर्या को या कहैं
नदिया के उस पार बसा रे,
वह छोटा सा गांव है।
छुई से पुते द्वार के खम्बे
झुकी-झुकी दालान है,
घर की एक पुतरिया सी वह-
घूंघट डाले नार है।


केवल दृश्य ही नहीं गांव की तमामा आवाजें उनकी कविताओं में स्थान पाती हैं-जहां ‘धारा का संगीत संजोये नदिया गाती है।’ पौ फटते नदिया के तट गगरिया गाती है।’ फसलों पर हाथों की करताल, ढोल, मजीरों पर मुस्काती गांवों की चैपाल, सुबह-शाम खेतों में हा-हू की गूंज रैया, दिलरी, फाग, टिमकी की ताल पर नाचती बेड़नी के पगघुंघरू, अंगना में कंगना खनकाती राम दुलैया, बच्चों के पांवों की पैजनियों की छमछम, नाले किनारे रात को टीटई की आवाज, सुबह-शाम की सुमरनी सब एक साथ सुनाई देते हैं।
नयी नयी फसलों पर नाचे

हाथों की करताल हो।
ढ़ोल-मजीनों पर मुस्काए,
गावन की चैपाल हो
जीवन की बांसुरी बजाए
आशा अपने ठांव में
हरे भरे से गांव में




ग्राम्यानुभूति मैं डूबे...मनोज 
जहां एक तरफ वे आवाजें हैं वहीं गहरी पीड़ा का भाव है। मेहनत करने के बाद राहत की सांस लेने का मन है। ‘हरे हरे पांतों की गहरी सी छोव पिया बैठ लो।’

टेड़ी सी गलियों में
जीवन भर चलना है
अंधियारी दुनिया में दीपक सा जलना है
उठते ही रहना है जीवन भर पांव,
पिया बैठ लो।


इन कविताओं में मौसमों, ऋतुओं हवाओं, तीज त्याहारों सब सब का स्मरण है। वे अपना सारा खाद-पानी और अभिव्यक्ति की ऊर्जा, गांव की सौंधी सुगन्ध में ही पाती हैं-‘फागुन आ गओ, नवरंग छा गओ, हो गयी जा घूरा गुलाल पिया।’ मेहनत और मशक्कत की जिन्दगी जीते हुए कवि मनोज की राम दुलैया कह उठती है-
मोरी पूजा देश-धरम की है।
मोरी इच्छा सात जनम की है।
मोरी सच्ची सही कमाई पे-
मोरो ठन ठन बजे रुपैया रे।


प्रकृति के गांव में अलावा इन संग्रह की कविताओं मैं  कवि मनोज बुंदेली राष्ट्रीय काव्य धारा के कवि के रूप में अपना डंका बजाते हैं-‘ कूच को डंका रन खेतन बाजो, हाथन लो हथियार। एक चलाओ प्यारे खेत में दूजो चलाबो रन द्वार।’ लगता है यह कविता उस समय की है जब श्री लाल बहादुर शास्त्री ने जय-जवान, जय किसानका नारा बुलंद किया था। कवि मनोज के राष्ट्रीय गीतों में माहुलिया, पंछी जगो सवेरे को और नेहरू जी की वसियत सातवें दशक में बहुत लोक प्रिय हुए। 1964 में उन्होंने पंड़ित नेहरू के देहावसन के बाद उनकी वसियत का बुन्देलखंड़ी बोली में काव्यानुवाद किया था और उसे गांव-गांव, शहर-शहर जाकर जनता के बीच गाया था।

पंड़ित नेहरू का स्वप्न जिस तरह इस देश में फलीभूत नहीं हुआ उसी तरह कवि मनोज की कविता में उस टूटे हुए सपने की पीड़ा उनके बुंदेली शब्दों में कुछ इस तरह झलकती है-
बडी रसीली कां गई रातें,
कां गये वे दिन गन्ना से।
इते उते हम फिरतई रै गए,
हाथ उठा चैकन्ना से।

...
ले ले खूब करौंटा काटी,
सब रातें भुनसारे खों।
खुली-खुली सी पोथी रे गई,
उलट गये हम पन्ना से।


इस चुनी हुई कविताओं के संकलन के तीन खंड हैं-पहिले खंड का शीर्षक है-बेला फूले आधी रात, दूसरा खंड-कां गये वे दिन गन्ना से और तीसरा कितने वर्ष जियोगी मेरी सोन जुही नाम से हैं।

पहिले और दूसरे खंड में क्रमशः खड़ी बोली और दूसरे खंड़ में क्रमशः खड़ी बोली और बुन्देली के गीत हैं। तीसरे खंड में उनकी कुछ आधुनिक हिन्दी कवितायें हैं। यहां शहर का जीवन कवि की काव्यानुभूतियों पर हमला सा कर रहा है पर यहां भी आधुनिक सभ्यता से पछाड़ सहते हुए भी गांव की स्मृति बनी हुई है।
बांस की पोर ने
जो पहना है
अज्ञात अंगुलियों ने छुआ है
न जाने मैं
किस बांसुरी के गांव में बजूंगा
किन-किन घेरों में
मेरा मौन
टूटेगा......झरेगा


पगडंडी पर चलते हुए यह अनुभूति कितनी सुन्दर, मोहक और पीड़ादायी है-
सूनी राह
कटीला जंगल
चलते-चलते
कभी-कभी मन
एक फूल से दुःख जाता है


यह काव्य चयन निश्चित ही कवि माधव शुक्ल मनोज के रचना संसार का प्रतिनिधित्व करता है। उन्होंने एक आदर्श शिक्षक के रूम में भी अपने जीवन को सार्थकता दी है। उनकी एक अध्यापक की डायरी जैसी रचना भी पाठकों के समक्ष जल्द से जल्द आना चाहिए। इस डायरी के अत्यंत रोचक अंश स्फुट पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। एक कवि के शिक्षक के रूप में अनुभव बड़े काम के साबित होंगे, जिस तरह हर सर्जक को उसी तरह कति मनोज को भी यह अधूरापन सताता है-अभी तक कुछ गाया नहीं!अपना कुछ बिखेरा नहीं।



कि पूरी ग्रामचर्या को बड़े सूक्ष्म विवरणों के साथ अपने में बसाये हुए है। सिर पर गठरी ले जाती हुई ग्रामीण स्त्री, उसकी धीमी-धीमी चाल, सामने मैदान का सूनापन और उसकी व्यथा में गुंथी हुई पूरे गांव की व्यथा-जो नदिया के उस पार बसा है-

समीक्षक

प्रियंवद

पुस्तक -नीला बिरछा
कवि माधव शुक्ल की चुनी हुई कविताएं
मूल्य सौ रूपए
प्रकाशक प्रवीण प्रकाशन, नई दिल्ली


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