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ध्रुव शुक्ल |
भोपाल के कला परिषद् के सभागार में उन्होंने अपने पिता के 70 साल पूरे होने के आयोजन की यादें ताजा कर दीं। वह आयोजन भी ‘पहले-पहल’ ने आयोजित किया था।
देश की कला राजधानी भोपाल में आयोजित, इस आयोजन में देश और प्रदेश के अनेक कलाप्रेमी, कलाकार, साहित्यकार और खासकर मनोज श्रीवास्तव और पंकज राग, गिरजा शंकर जी भी उपस्थिति उल्लेखनीय है।
ध्रुव शुक्ल ने कहा कि यहां मनोज श्रीवास्तव जी उपस्थित हैं वे मेरे पिता के मित्रों में से हैं और उनकी कविताओं को भी काफी पसंद करते रहे हैं।
समाज अगर ये सोचेगा कि उसने सिर्फ एक सरकार बना दी है कोई एक व्यवस्था बना दी है वो जाने उसका काम जाने..तो मेरे ख्याल से... ये समाज की एक सामाजिक कोताही है। समाज के हर समर्थ व्यक्ति को चाहे वो लेखक हो, कलाकार हो, पूंजीपति हो, समाजसेवक हो, स्वयंसेवी संगठन का व्यक्ति हो, वो जो भी हो, वो देखे कि ये जो मेरे पांव की जो जमीन है वो खिसकती है तो क्या होगा।
माधव शुक्ल 'मनोज' |
इसलिए किसान को बचाने का जो धर्म है वह पूरे भारतीय समाज का है। इसलिए मैंने अपने पिता की बहुत सारी कवितायें इसलिए चुनी कि आप लोग सभी उनसे परिचित हैं एक बुन्देली के लोक कवि के रूप में, एक 'शीर्षस्थ कवि के रूप में मुझे गौरव है कि वे प्रतिष्ठित हुए और मैं उनकी कुछ कवितायें इसी बहाने से यहां ले आया हूं।
स्वाद स्पर्श, व्यंजनों के स्वाद, रंगबिरंगा पन, बहुरंगीपन, संस्कृति--- अगर हम इससे सब छूट गये और हम बस 'शीला की जवानी..' और क्या वो 'मुन्नी की बदनामी' में ही उल्झे रहे तब हम बहुत मुश्किल में फंस जायेंगे..और उस मुश्किल से निकलने के लिए बहुत जरूरी है कि हम सब अपने किसान की चिन्ता करें। इस कारण मैं ये कुछ कवितायें आपके सामने रखने की इच्छा कर रहा हूं और कुछ उस इतिहास की याद भी करना चाहता हूं कभी हम लोगों ने 1965-66 में उस भूख और अकाल का हमने सामना किया था जब लाल बहादुर शास्त्री भारत के प्रधानमंत्री थे तब हमने बड़े गर्व से कहा था ‘जय जवान, जय किसान,’ क्यों कहा था कि हमको दौनों तरह के रणों में लड़ना है। एक को खेतों में जूझना है, भूख से लड़ना है और दूसरे को सीमा पर रण में लड़ना है। वहां भी एक दुश्मन घात लगाये बैठा है। चाहे वह हमारा विभाजित पड़ोसी हो और चाहे पंचशील से समझौते करने वाला एक दूसरा पड़ौसी हो, अन्ततः क्या हुआ इस हमारे सपने का ? बड़े-बड़े नेताओं को हृदयाघात हुआ, पक्षाघात हुआ, तो हम ये किस तरह का देश चला रहे हैं ? और फिर हमने हरित क्रांति और ‘'स्वेत क्रांति के सपने देखे... हम मशीने ले आये, हम हल की नोक को धरती की स्मृति से जोड़ना भूल गये। तो हमने जो बहुत सा दूध पैदा करने का संकल्प लिया,, हमने रसायनों से घरती को मुर्दा कर दिया। हमने यूरोप की आयातित नस्लों की गायें से अपनी सुरहन गैया बदल-- ली। हमारी सुरहन गैया जो थी प्रकृति से लड़ जी लेती थी, अब हमने उस सुरहन गैया के बदले हम अजीब तरह की गायें ले आये जो बहुत सुकुमार हैं तो ऐसी गायों का हमने गौ-पालन किया और अपनी गायों को हमने मरने दिया। तो ये जो सब कुछ हुआ हमारे साथ तो ये आत्मालोचन का समय है।
आम तौर पर ये हो रहा है कि बहुत दोषारोपण हो रहा है। कि आपको यह कहने का अधिकार नहीं है क्योंकि आप तो यही करते रहे हैं तो आपको यह कहने का अधिकार नहीं है क्योंकि आप तो यही कहते हैं। तो आखिर ये भारत को चलाने का वास्तिविक अधिकार किसको है ? वो उन व्यक्तियों को है जो भारत के नागरिक हैं और जो किसान संस्कृति में भरोसा करते हैं। जिनकी ये इच्छा कतई ये नहीं है कि वन भूमि विदेशी लुटेरों के हाथ में चली जाये, जिनकी ये इच्छा कतई नहीं है कि किसान बहुत अल्पजीवी, कम उत्पादन वाले, छोटी जोतों वाले हो जायें ? भारत में एक समय खेती कौटुम्बिक होती थी, खेती का बंटवारा नहीं होता था। हमने जिस दिन से खेती का बंटवारा किया हमारा किसान छोटा होता गया। अकेला होता गया, कम उत्पादन में जीता गया, उसके उपर दुनियाभर के करर्जे लाद दिये..यह सब हमारे साथ... हमारी किसान संस्कृति के साथ हुआ है। और मैं ये कवितायें आपको सिर्फ इसीलिए सुना रहा हूं कि हम फिर उस अपनेपन की याद में फिर से लौट सकें...
हमनें जो अपनापन खोया है अपने गांव के साथ, उसको हम पा सकें...उसकी कुछ स्मृतियां हैं... एक लोक कवि की.
महाकवि निराला जी की कविता...अमरण भर वरण गान, वन वन उपवन उपवन जागी छवि खुले प्राण... के गायन के पश्चात लोक कवि माधव शुक्ल 'मनोज' जी की ही गायन शैली में उनकी कविताओं का पाठ और गायन श्री ध्रुव शुक्ल ने किया।
सूरज सोना सा बरसाये धरती बिरछा पात हो,
हंसे दूधिया चांद चंदनिया गोरी गोरी रात हो,
हरियाली की गोद चूमती नदिया बहे बहाव में
हरे भरे से गांव में...
चक्की के पाटों का राग उठा घर्रर-धर्रर,
माटी के घर में जगा धुंधले सुबह का पहर
खटपट सब बंद हुई सुनसान गलियां
गुमसुम हैं काटों में आशा की कलियां
बेला फूले आधी रात---
पिया बैठ लो
हरे हरे पातों की गहरी सी छांव, पिया बैठ लो
जय जय धरती मैया की,
खेतों की खलियानों की, मैडों की मैदानो की
तुम चंदा से भैया, तुम सूरज से भैया
मोरे अंगना में कंगना खनके रे,
मोरी नाचे राम दुलैया रे।
बड़ी रसीली कां गई रातें, कां गये वे दिन गन्ना से,
इते उते हम फिरतई रै गये हाथ उठा चैकन्ना से।
कूच को डंका रन खेतन बाजो
अरे भैया हो.. हाथन लो हथियार,
एक चलाओ प्यारे खेत में, दूजो चलाओ रन द्वार
लिपी साफ सुथरी खलिहाने
गिरी बिरगुवाई के भीतर
जैसे कोट फिर हो किसी किले का
उची उची खड़ी पचासी
बूंद गंगाजल पानी हो धरती धानी धानी हो
मन की बगिया फूले हो झूले फूल हिंडोले हो,
माटी भरे जवानी हो...
35 मिनिट के इस कथन, वाचन और गायन में प्रसिद्ध कथाकार, कवि, साहित्यकार श्री ध्रुव शुक्ल ने अपने पिता की सासों के स्वर में अपने पिता की परंपरा, विरासत और उनके हृदय के जाने-अंजाने दृश्य खोजने और महसूस करने का प्रयत्न किया। पिता की सांसों के उपजे संगीत और पिता की आत्मा के स्वभाव की याद को पुनः पाने, उसे जानने-मानने का प्रयास किया।
‘किसान धरती का नमक है’ नाम से लोक कवि माधव शुक्ल 'मनोज' की कविताओं की, कथाकार ध्रुव शुक्ल द्वारा प्रस्तुति और बसंत पंचमी 8 फरवरी 2011 को, भोपाल में पहले-पहल का आयोजन की डी.वी.डी. निर्मित हो, वितरित है।
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