Sunday 26 May 2013

मनोज का कवि


माधव शुक्ल मनोज 

श्री माधव शुक्ल मनोज बुन्देली के नैसर्गिक कवि गीतकार हैं। उनकी हिन्दी कविता भी बुन्देली  की धरती पर खड़ी होती है और सम्पूर्ण  जातीय संस्कार ग्रहण करती हैं इसलिए मनोज की किसी भी रचना में मिट्टी की वह सौंधी सुगन्ध मिलती है, जो मनुष्य की मूल प्रकृति और नियति को गहरे तक व्याख्यायित करती हैं।

श्री मनोज के हिन्दी कविता संग्रह सिकता कण, भोर के साथी, माटी के बोल, एक नदी कंठी सी, नीला बिरछा, टूटे हुए लोगों के नगर में, जिन्दगी चंदन बोती आदि की रचनाओं में जीवन के विभिन्न  लम्बे अनुभवों का सार तुकान्त-अतुकान्त कविता में उतारेने की कोशिश की है। श्री मनोज की हिन्दी कवितओं को पढ़ने पर लगता है जब वे कोई बात बुन्देली में नहीं कह पाते या उन्हें ऐसा लगता है कि उन्हें हिन्दी में कहने में अधिक सुविधा होगी, तब वे हिन्दी की तुकान्त - अतुकानत कविता लिखने लग जाते हैं परन्तु मुझे हिन्दी कविताओं का स्वर भी बुन्देली गीत-कविताओं से बाहर नहीं लगता बल्कि यह कहना अत्युक्ति नहीं है कि 'मनोज' तो मूलतः बुंदेली बोली के कवि-गीतकार हैं। जहां बुन्देली शब्द काव्य की सरस धरती पर ऐसे बरसते हैं जैसे सावन की फुहार तन-मन को सुख देती है, भिगा देती है।

‘ जब रास्ता... चौराहा पहिन लेता है, चौकोर तुक्कों का संकलन है। कवि कहता है-ये चौकोर तुक्के अपनी नयी शैली-शिल्प में है। जिसमें कोई छन्द मात्राएं नहीं है। एक सीधी सादी कहन ही मौजूद  है-

अंधेरे में गेंहूं की बालों का उजाला
फसल रात ने चपके से रखली काटकर
दिया जगमगा कर अपना अब हिस्सा मांगा
सूरज ने किरण बो दी है-दिन के खेत मैं।

इस सीधी सादी कहन में प्रकृति की विपरीत व्यवहार दशा मनुष्य के आचरण को केन्द्र में रखकर कही गई है।
आज की स्थिति पर श्री मनोज संग्रह में कहते हैं 'आदमी सूखे लकड़ी का गट्ठर सा बंधा है' या 'खंडहरों में चालाक धुग्गू बैठे हुए हैं' अथवा 'आदमी तो आदमी, उसकी तस्वीर कितनी दोगली-आईना उसका भी है और चेहरा भी उसका'। 'भागती परछाईयों के सामने किस तरह पकड़ोगे अपने आपको'। आदि अभिव्यक्ति मनोज जी के लोक मानस की छटपटाहट लगती है।

श्री माधव शुक्ल मनोज बुन्देली संस्कृति के गहरे अध्येता हैं इसलिए बुन्देली लोक संगीत, लोक साहित्य और परम्पराओं को ध्वनियां उनके काव्य में सहज रूप से देखी जा सकती है। बुन्देली लोक धुनें मनोज जी की कविता को सांगीतिक आधार देती है और उन्हें गेयता की श्रेणी में बिठाती है। साथ ही शब्द परम्परा की सूत्रात्मकता को भी वागर्थ में अनुस्यूत करती चलती है।

श्री माधव शुक्ल मनोज के काव्य की सबसे बड़ी विशेषता कि मनोज जी अपनी कविता में अपने कवि को कभी दोहराते नहीं हैं सदैव नये शब्दों में नई बात करते हैं यह विशेषता बुन्देली और हिन्दी दौनों में मौजूद रहती है। कविता अपने आसपास को सहज धटित व्यंजनाओं को अपनी कविता में बड़ी संवेदनशीलता के साथ पकड़ते हैं इसलिए' मनोज' जी सच्चे अर्थ में जन-जन के कवि हो जाते हैं। बुन्देली हिन्दी की सुदीर्ध परम्परा को साधते हुए श्री मनोज जी ने बोली और भाषा का अनार्लय के सेतु का निर्माण किया है यह संयोग किसी अन्य कवि-गीतकार में दुर्लभ ही है। इस परिप्रेक्ष्य में श्री मनोज जी का अवदान सदैव याद किया जायेगा। 

वसंत निरगुणे


1 comment:

Unknown said...

बहुत महत्वपूर्ण लेख।
बुंदेली भाषा साहित्य अमूल्य थाती है।