Thursday 9 May 2013

प्रकृति के तरुण गायक मनोज-निर्द्वन्द


प्रकृति के तरुण गायक मनोज-निर्द्वन्द 



नई दुनिया 29 अप्रैल 1962

साधारण कद, छरहरा शरीर, तीखे नाक नक्श, पीछे की ओर बिखरे छितरे लम्बे बाल और इनमें जो रूप रेखा उभरे वे हैं   30 वर्षीय कवि माधव शुक्ल  ‘मनोज’। ‘मनोज’  जी सागर के निकटस्थ ग्राम 'पनागर' की प्राथमिक शाला में शिक्षक हैं। हृदय के उदार संवेदलशील। धुन और लगन के पक्के अभावों से सदा जूझने वाले। प्रकृति के सहचर्य में अपने अभावों को मूल आनंद की उपलब्धि के प्रयासों में संलग्न इस तरुण कवि ने प्रकृति के रूपों को जिस संजीवता के साथ अंकित किया है उससे हिन्दी काव्य की श्रीवृद्धि हुई है। कॉंटों में भी जिनके बोल मस्ती से फूटे हैं, एक आस्था के साथ-

बेल पात्रिकाए टहनी में बेलों के
संग झूम रही
अड़न्नाथ केथों की टोली कांटो के 
बन चूम रही
माटी के ढेलों पर हैं गमार पाठे
का पत्ता
फैल रही यों अगल-बगल में अन-
गिनती कांटों की सत्ता
मंजिल तक चलने वालें के छाले
छिलकर फूट रहे
मैदानों में खड़े घास के डन्ठल सीधे
सूख रहे
जुभ जाने को सभी चाहते रो देना
मत भूल के
कांटे लगे बबूल के।

कांटों के बीच खिलने वाले फूल ही जीवन को उसके वास्तविक स्वरूप को समझ पाता है-

दो बीघा जमीन के राजा मैं रानी
हूं खेत की
चमकदार पड़े पत्थर मैं चिनगारी
हूं खेत की
इसीलिए हर अधियारे पर फैला
मेरा राज है
आफत का तपता अंगारा मेरे
सिर का ताज है
उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम मेरे
संगी साथ हैं
मेरे हाथों में जो तेरे वे दोनों ही
हाथ हैं
ओ मेरे जीवन के आंगन
कैसे यह चलती है धड़कन
हमने जाना तुमने जाना

जीवन के अन्धड़ में आस्था का दीप जलाने वाले कवि मनोज का जन्म सागर में 1 अक्टूबर 1930 को हुआ था। संघर्षों में पले और बढ़े-चाह होते हुए भी उच्च शिक्षा न प्राप्त कर सके और विवशता के साथ समझौता कर प्राथमिक शाला में शिक्षक हो गए। पढ़ने का संतोष न मिला तो पढ़ाने का बाना पहिना, बेबसी की लोरियां सुनी तो आस्था के गीत गाये और प्रकृति की गोद में जा लेटे। कैसा है यह विरोधाभास जो समझ कर भी अबूझ रहता है।

मैनें जब मनोज को पहली बार देखा था तो वे कटरा बाजार से पीपल की पत्तियों की जुड़ी लटकाये मस्ती में झूमते चले जा रहे थे साथ के एक कथाकार मित्र बोले-जानते हो वह कौन हैं? और जब तक मैं नाकारात्मक उत्तर दूं वे स्वयं बोले मनोज जी हैं यहां के तरूण कवि। पीपल की पत्तियां ले जा रहे हैं।

मनोज की कई रचनायें तब तक मैं पढ़ चुका था, रेडियो में भी उनका कविता पाठ सुना था और बिना देखे ही अपनी मान्यता बना चुका था। मित्र के कथन से चुभन हुई पर हंसकर बोला शायद आपके लिए ही न हो।
फिर मनोज जी से परिचय हुआ और तब मैंने जाना कि वह ठाठदार मनुष्य ही नहीं ठाठदार कवि भी हैं।

मध्यप्रदेश के तरूण कवियों में मनोज जी ने एक विशिष्ट स्थान बना लिया है। तीस वर्षीय इस कवि ने ग्राम जीवन और ग्राम प्रकृति के चित्रों को जिस रंगीनी और खूबी के साथ चित्रित किया है वह विगत पच्चीस वर्ष के हिन्दी काव्य में बिरली ही देखने को मिलती है। श्री आदर्श का यह कथन उचित ही है कि ग्राम्य जीवन और ग्राम्य प्रकृति को मनोज ने अत्यन्त निकट से देखा है और गहरी अनुभूति के साथ उन्हें शब्द चित्रों में उतारा है। बुन्देलखण्ड के गांवों को उन्होंने वाणी दी है उनमें अनुभूति की ईमानदारी घोली है और कहने की सफाई भी। उनके गीत अनुभूतियों  को सहजता के कारण ही सरस बन गये हैं। 

इसमें संदेह नहीं कि मनोज जी ने सूक्ष्म दृष्टि पाई है और उनकी सहृदयता ने उन्हें सुरूचिपूर्ण अनुभूतियों की आस्थापूर्ण अभिव्यक्ति दी है। इसी से कवि के काव्य ने विस्तार पाया है।
वह हंसे ज्वार के खेत की कुटकी को ब्याह रचाते और बाजरा को प्रीत करते हुए अनुभव करता है।

प्रीत ज्वार से करे बाजरा, कुटकी
ब्याह रचाती है।
काचरिया का ढोल बजाकर बनरी
मूंग सुनाती है
पास खड़ा विरवा बबूल का नये 
बराती टेर रहा
उरदा पहुंनई करने को नये संगाती
हेर रहा।

भादों रसिया के आगमन पर कवि का हृदय हुलस पड़ता है और एक नया एल्बम खुल जाता है-

हरी भरी धरती दुल्हन रे भादों
रसिया दूला है,
जिनके संग संग झूम चला रे बन्दों
वाला झूला है,
लाज की मारी बेलें गुमसुम छप्पर
पर बल खायें रे
बदरारी किरणें धरती पर तृण
तक को दुलराये रे।

गांव की चांदनी से कवि मन में उमंग का अनुभव कर मन-मौजी प्राणों से गीतों का राग चला प्रकृति को नये ही रूप में देखता है। चांदनी की सत्ता का आभास उसे संवेदनशील बना देता है।

चमन-मगन जंगल में झींगुर
झंकार उठे,
गुपचुप चकोर मोन मन को संगार 
उठे,
बल खाती शरमायी चन्दा के
गांव की-
तरूओं के पातों पर अटक चली
चांदनी!


डॉ. रामरतन भटनागर के शब्दों में उनने ग्राम को अत्यन्त निकट से देखा देखा है।

'माटी के बोल' की भूमिका में भाई ब्रजभूषण सिह आदर्श ने मनोज जी के इन गुणों की व्याख्या की है। कहा गया है कि मनोज जी आस्था के कवि हैं। यथार्थ को उन्होंने विस्मृत नहीं किया किन्तु नये जागरण के प्रति उनकी दृढ़ आस्था ने प्रगतिवादी कवि की निषेघात्मक धारणा का आवरण दूर रखा है। कवि को दुख दैन्य ग्रसित कृषिकों और मजदूरों के आत्म गौरव और विश्वास पर अटूट श्रद्वा है और वह उन्हें खड़ित नहीं करना चाहता भले ही प्रगति और प्रयोगवादी उस पर नाक भी सिकोड़ें

तुम मेड़ मडे़यों के राजा, तम दुपहर सांग सकारे हो
तुम ही हो माटी के सोना तुम पानी 
हो बदरान हो
तुम सोन चिरैया विरछा का हो
फूले फले समैया
तुम चंदा के भैया, तुम सूरज के भैया!

यहां चंदा और सूरज के साथ भ्रातत्व स्थापित कर कवि ने किसान की कोमलता और कठोरता को जिस खूबी के संजोया है वह मानवोचित गुण है।

'मनोज' ने मानव स्वरूप की जिस देवोपम रूप की कल्पना की है या जिसे खेतों और खलिहानों में देखा हैं उसे अत्यन्त कुशलता से अंकित किया है। मनुष्य की कुरूपता का अंकन प्रकृति के चितेरे से संभव भी नहीं क्योंकि उसकी दृष्टि में में पतझड़ का सौन्दर्य बसन्त श्री से कम नहीं भले ही कुछ विज्ञजन इसे पलायन की ही वृत्ति मानें। 'मनोज' के लिए कविता कसक, विलास या तान मात्र नहीं क्योंकि उसकी दृष्टि में साहित्य का अर्थ हित के साथ है। यही कारण है कि वह  इसी सीमा के भीतर ही प्रगतिवादी और प्रयोगी दोंनों हैं।

सच पूछिए तो मनोज के काव्य को किसी वाद के कटघरे में रखना उनके साथ अन्याय होगा शायद इसीलिए कहा गया है कि छायावादी खेमों में मनोज की कविताएं भले ही स्थान न पाएं, प्रगतिवादी काव्यांतगत ग्राम्य जीवन के सुनिश्चित आकार में भी भले ही उनकी कविताओं को फिट न किया जा सके और प्रयोगवादी भी इन कविताओं को न स्वीकारें किन्तु चूकि इनमें चैपालों में गूंजने की शक्ति है वे ग्रामीणों की धरोहर बनने की क्षमता रखती हैं

लोक गीतों से कवि को प्रेरणा मिली है और उनकी अनेक कविताओं में लोक गीतों की आत्मा ध्वनित हो रही है। ग्रामीण जीवन के चित्रण के लिए परम्परागत लागक संगीत और लोक साहित्य से प्रेरण समीचीन है और माधव शुक्ल मनोज ने इस तथ्य को प्रमाणित भी कर दिया है।

इस संबंध में डॉ. भटनागर की मान्यता है कि भाषा की जनपदीय झलकियां हमें ग्राम की आत्मा के संपर्क में ले आती हैं और लोक गीतों की धुनें हमें एक बार भुला सा देती हैं और इसी को आदर्श जी ने अधिक कलात्मक ढंग से कहते हुए लिखा है ‘‘ कवि ने बुंदेलखंडी लोक गीतों से अपना तादात्म्य स्थापित कर कविता के माध्यम से गीतात्मक भाव धारा को लिरिकल बनाया है। उनकी भाषा के दर्शन, नाद सौन्दर्य, लयात्मक गति और इन्द्रधनुषी भव रूपों के कारण चटकदार बन पड़ी है।

मध्यप्रदेश के तरूण कवियों में मनोज जी से अनेक आशायें हैं उनके काव्य में जिस तन्मयता के दर्शन होते हैं यदि उसमें चिंतन का समावेश और हो जाये तो वह और अधिक उज्जवल रूप धारण कर सकेगा


निर्द्वन्द

नई दुनिया जबलपुर
29 अप्रैल 1962

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