Friday 10 May 2013

सोनार बांगला देश-सम्पादन

माधव शुक्ल मनोज 
मानव का सब से महत्वपूर्ण अधिकार आत्म निर्णय का अधिकार है। आज बंगला देश में जनता के इसी अधिकार का बर्बरता पूर्ण नृशंस अपहरण और दमन किया जा रहा है।

मानवता की रक्षा के और विचार से सहानुभूति रखने वाले साहित्यकारों, कवियों का कर्तव्य है कि वे इस अन्याय के विरूद्ध आवाज उठायें और बंगला देश के लिये जूझती जनता को अपनी पूर्ण सहानुभूति दें।

इस समय देश के सामने बंगला देश, उसकी कराहती हुई गरीब शोषित जनता का दुख दर्द एवं अत्याधिक संख्या में आये हुए  शरणार्थियों की समस्या एक बड़ी जटिल समस्या है।

इन्हीं संदर्भों में अपने अपने विचारों को प्रकट करने लिए बंगला देश के पीड़ितों के सहायतार्थ हमने नगर के कवियों की कविताओं का एक छोटा सा संकलन 'सोनार बांगला देश' आपके समक्ष रखने का प्रयास किया है।

संकलन के सभी कवि-मित्र एवं साहित्यकार बंगला देश सहायता समिति सागर के समस्त सदस्य श्री विट्ठलभाई पटेल अध्यक्ष नगर पालिका सागर के आभारी हैं कि उनके ही विशेष सहयोग से यह सकलन (जिसकी आय बंगला देश के सहायतार्थ भेजी जायेगी ) आपके हाथों में पहुच सका है।

सम्पादक
माधव शुक्ल मनोज


सोनार बंगला देश- सम्पादक माधव शुक्ल मनोज 
कवि

श्री चन्द्रशेखर व्यास
 गोविन्द द्विवेदी
 कन्छेदीलाल अलबेला
 गोविन्द देवलिया
 ऋषभ समैया
 रमेश दत्त दुबे
 विट्ठलभाई पटेल
 लक्ष्मीनारायण चैरसिया
 निर्मल नीरव
 मनोज
 शिवकुमार श्रीवास्तव
 लक्षमण सिंह चैहान निर्मम
 ज्वालाप्रसाद ज्योतिषी
 फूलचंद मधुर
 सलाम सागरी
 इकराम सागरी
 रामसिंह चैहान बेधडक
 हरिप्रसाद द्विवेदी
 प्रेमशंकर
 केवल जैन
 नवीन सागर
 जयनारायण दुबे
 योगेन्द्र दिवाकर
 श्री रघु ठाकुर


भूमिका

सोनार बांगला देश मेरे सामने हैं। सागर के सहकर्मी कवि मित्रों का एक सजग संकलन। भाई ‘मनोज’ और ऋषभ समैया ने इन रचनाओं को जुटाया है और जनता तक पहुंचाया।

कहते हैं जब-जब मिट्टी पर संकट आता है तब-तब मिट्टी के बेटे सबसे पहिले हांक लगाते हैं। वह मिट्टी फिर हंगरी की हो, वियतनाम की हो या बांगला देश की ! इसमें भारत की मिट्टी भी सम्मिलित है। जो सबसे पहिले स्वीकारे और आभारे, मां उसी की होती है। यह संदर्भ भी एक ऐसा ही रहा। भारत के स्वतन्त्रय संग्राम के लिए कभी अविभाजित बंगाल की मिट्टी से एक गीत फूटा था ‘‘ बन्दे मातरम’’! बंकिम बाबू ने इसे लिखा और पीढ़ियों ने इसे गाया। पीढ़ियां ही नहीं अब शताब्दियां भी इसे गायेंगी।

उस एक गीत का हम कलम जीवियों पर इतना कर्जा है कि हमें न जाने कितने जन्में तक यह कर्जा चुकाना पड़ेगा। भारत के कवियों को यह कर्ज अपनी वसीयतों में स्वीकार करना होगा। मेरा मन कहता है कि सारे देश में हम लोग बांगला देश की वेदना और संवेदना के लिए जो कुछ लिख रहे हैं व उसी कर्जे की किश्तों में जमा होगा। हम बांगला पर उपकार नहीं कर रहे हैं।

प्रस्तुत संकलन की रचनाओं का आक्रोश और तेवर समयानुकूल तो है हीं, वीरोचित और मानवोचित भी है। यह आवश्यक भी था।

‘‘ बांगला देश के संदर्भ में राजनीति, जितनी निर्मम, मानवीयचता जितनी गूंगी और राजनेता जितने बहरे सिद्ध हुए हैं वह बेजोड़ है। इस शताब्दी का यह ‘पाषाण पर्व ’ इन गूंगों बहरों औश्र निर्ममों को कभी क्षमादान नहीं देगा।’’
मेरी बात को काव्यात्मक रूप से पं. ज्वालाप्रसाद जयोतिषी ने इस संकलन में कह तो दिया है।


‘‘पंछी आज गाते हैं क्यों नहीं ?
  सूरज उग आया है
  चारों ओर उजियाला छाया है
  फिर भी सब चुप क्यों हैं
  जागरण की भैरवी उठाते नहीं
  गौरईयों-पड़कुलियों-सुग्गे औ
  कौवे औ मैना औ कोकिल
....सब मौन हैं।’’


बांगला में भैरव का रक्त-खप्पतर छलका और हमारी भैरवियों जाग गई हैं। अब ये सारे प्रतीक हमने बंगला की सम्पूर्ण मुक्ति को अर्पित किये हैं। बंकिम, श़रत, रवीन्द्र और अनगिन पहरूओं को हमने भी एक फौजी सलाम ठोका।

मैं जानता हूं इन रचनाओं में युद्धोन्माद नहीं है न ये बोल हमारी युयुत्सवा वृत्ति के कोरस ही हैं पर ये जो भी कुछ हैं किसी मंगल लक्ष्य की ओर बढ़ते आहत देश के आगे उचारे जाने वाले चारण-बोल तो हैं ही। जब भी बंगाल में सम्पूर्ण मुक्ति की प्रतिष्ठा होगी, हम सर्वाधिक सम्मानित होंगे। उन्हें उनका प्राप्य मिल, हमें हमारा। इस बीच का सारा संघर्ष वहां और यहां सीधी संघर्ष है।
हम चूकेंगे तब भी चुकायेंगे जरूर।

सबको बधाई।

बालकवि बैरागी

राज्य मंत्री
सूचना तथा प्रकाशन एवं पर्यटन

दिनांक 21.7.1977

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