Wednesday 19 June 2013

'अ' अनार कौ मोरी बिटिया- माधव शुक्ल ‘मनोज'

माधव शुक्ल मनोज 
'अ' अनार कॊ  मोरी बिटिया 
'अ' अनार कौ मोरी बिटिया

अ अनार कौ मोरी बिटिया
पढ़ हे किताब में
लिख हे स्लेट पे
अ, अनार को मोरी बिटिया।

पहिली पास करहे
फिर दूसरी में जे हे।
अक्षर अुर गिनती खों
गा-गा कें कह हे।
रामायण पढ़ हे ऊ बांच लेहे चिठिया
अ, अनार कौ मोरी बिटिया।

माधव शुक्ल 'मनोज' जी की  हस्तलिखित डायरी  मै कविता 
झांसी की रानी
सीता सी कहानी।
गंगा सी पावन
मोरी बिटिया रानी।
बाबा के हाथों की बन ऊ लठिया।
अ, अनार कौ मोरी बिटिया।

ममता की क्यारी
घर-घर की फुलवारी।
माथे कौ चंदन
ऊ अरचन की थारी।
उड़ जेहे ऐसी जैसे-
आंगन की चिड़िया।
अ, अनार कौ मोरी बिटिया।

इस कविता को मध्यप्रदेश शासन ने अपनी 'बेटी बचाओ अभियान' योजना के प्रचार-प्रसार के लिए स्वरांकित कर जनता को शिक्षा और बेटी के प्रति उत्साहित किया है। यह कवि माधव शुक्ल ‘मनोज’ का सम्मान है जो देश का गॊरव हैं।जनसंपर्क, भोपाल के माध्यम से निर्मित और प्रचारित किया जा रहा है। गीत को स्वर दिया है श्री शिवरतन यादव जी ने जो पिता की अनेकों कविताओं को स्वर और संगीत से संजोया है।

पिता जी ने यह कविता सागर के उनके अपने परकोटा के मकान की छत पर बैठ लिखी थी। पिता अपने आत्म को कवि और शिक्षक रसधारा इतने गहरे पैठाने लगे कि बस क्षण में ही संसार की बाह्य परिधि से केन्द्र में इतनी तीव्रता से चले जाते कि चाय की प्याली खत्म होते-होते एक बड़ी कविता उनमें आकार ले लेती। ऐसे ही समय में स्कूल में पढ़ रही अनेकों छोटी-छोटी बेटियों की याद इस कविता में एक शब्दाकार लेने लगी। अक्सर वे इस कविता को अक्सर बच्चों, स्कूलों के अपने उत्सवों और कभी शिक्षा मनीषियों के बीच सुनाते, इस कविता को उन्होंने कवि गोष्ठी, सम्मेलनों और छतरपुर और भोपाल आकाशवाणी में भी गाया। इस कविता का प्रकाशन पत्रिकाओं में हुआ।

कवि और शिक्षक मन जब लोक के अन्तरमन से जु़ड़ जाता है और जनमन की धडकन से घड़कने लगता है तो ऐसी कविता जैसे बरस-बरस पढ़ती है। पिता जैसे अपनी जटाओं में इस उतरती धारा को समेटने में सिद्धस्थ थे और उसे अपने रस में सराबोर कर नदी बनाना भी जानते थे।

एक बार पिता ने कहा था कि मैं एक कवि सम्मेलन से लौटते कटनी से सागर की ओर आ रहा था कि ट्रेन मैं बैठे मुझे लगा कि जैसे नदी, पहाड़, चरती हुई गायें, उड़ते पंछी, रास्ते में दीखते आते जाते लोग और साथ में यात्रा करते लोगों में  ‘‘मैं ही हूं’’ ऐसी अनुभूति कुछ समय प्रवाहित होती रही और जब इस प्रवाह से जब मैं बाहर आया तो लगा ब्रम्ह की सत्ता की एक झलक से गुजर गया हूं। लगता हूं अब लगातार नया हूं और आदमी से ज्यादा कुछ और ही हूं...

 पिता को जैसा देखा, जाना, समझा वैसा ही लिख दिया है
                                                          आगत शुक्ल 

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